पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ४२४ )


नही जो विनका बखान करूँँ। पर मैं इतना जानता हूँ कि तीन करोड़ अट्ठासी सहस्र एक सौ चटसाल थीं, श्रीकृष्णचंद की संतान के पढ़ाने को, औ इतने ही पांड़े थे। आगे श्रीकृष्णचंदुजी के जितने बेटे पोते नाती हुए, रूप बल पराक्रम धन धर्म में कोई कम न था, एक से एक बढ़ कर था, उनका बरनन मै कहाँ तक करूँँ। इतना कह ऋषि बोले―महाराज, मैने ब्रज औं द्वारका की लीला गाई, यह है सबको सुखदाई। जो जन इसे प्रेम सहित गावेगा सो निस्संदेह भक्ति मुक्ति पदारथ पावेगा। जो फल होता है तप यज्ञ दान व्रत तीरथ स्नान करने से सो फल मिलता है हरि कथा सुनने सुनाने से।