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सॉप निकाल कहने लगा–हे पिता, तुम अपनी देह सँभालो मैने उसे श्राप दिया है जिसने आपके गले में मरा सर्प डाला था । यह बचन सुनते ही लोमस ऋषि ने चैतन्य हो नैन उधाड़ अपने ज्ञान ध्यान से विचारकर कहा–अरे पुत्र, तूने यह क्या किया, क्यो सराप राजा को दिया, जिसके राज में थे हम सुखी कोई पशु पंछी भी न था दुखी, ऐसा धर्मराज था जिसमें सिंह गाय एक साथ रहते और आपस में कुछ न कहते । अरे पुत्र, जिनके देस में हम बसे, क्या हुआ तिनके हँसे । मरा हुआ सॉप डाला था उसे श्राप क्यों दिया ।

तनक दोष पर ऐसा श्राप, मैंने किया बड़ा ही पाप ।

कुछ विचार मन में नहीं किया, गुन छोड़ा औगुन ही लिया

साधु को चाहिये सील सुभाव से रहे, आप कुछ न कहे, और की सुन ले, सबका गुन ले ले औगुन तर्ज दे । इतना कह लोमस ऋषि ने एक चेले को बुलाके कहा--तुम राजा परीक्षित को जाके जता दो जो तुम्हें श्रृंगी ऋषि ने श्राप दिया है, भला लोग तो दोष देहीगे पर वह सुन सावधान तो हो । इतना अचन गुरू का मान चेला चला चला वहाँ आया जहाँ राजा बैठा सोच करता था । आते ही कहा–महाराज, तुम्हें श्रृंगी ऋषि ने यह श्राप दिया है। कि सातवें दिन तक्षक डसेगा । अब तुम अपना क्रारज करो जिससे कर्म की फॉसी से छूटो । सुनते ही राजा प्रसन्नता से खड़ा हो हाथ जोड़ कहने लगा कि मुझ पर ऋषि ने बड़ी कृपा की जो श्राप दिया, क्योंकि मैं माया मोह के अपार सोचसागर में पड़ा था, सो निकाल बाहर किया । जब मुनि का शिष्य बिदा हुआ तब राजा ने आप तो बैग लिया और जनमेजय को बुलाय राज