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चौथा अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले―राजा, जिस समै श्रीकृष्णचंद जन्म लेने लगे, तिस काल सबही के जी में ऐसा आनंद उपजा कि दुख नाम को भी न रहा, हरष से लगे बन उपवन हरे हो हो फूलने फलने, नदी नाले सरोवर भरने, तिनपर भाँति भाँति के पंछी कलोले करने, और नगर नगर गाँव गाँव घर घर मंगलाचार होने, ब्राह्मन यज्ञ रचने, दसो दिसा के दिगपाल हरषने, बाल ब्रजसंडल पर फिरने, देवता अपने अपने बिमानों में बैठे आकाश से फूल बरसावने, विद्याधर, गंधर्व, चारन, ढोल, दमामे, भेर, बजाय बजाय गुन गाने। और एक ओर उर्बसी आदि सब अप्सरा नाच रही थी कि ऐसे समै भादो बदी अष्टमी बुधबार रोहिनी नक्षत्र में आधी रात श्रीकृष्ण ने जन्म लिया, और मेघ बरन, चंद मुख, कमल नैन हो, पितांबर काळे, मुकुट धरे, बैजन्ती माल और रतनजटित आभूषन पहिरे, चतुर्भुज रूप किये, शंख, चक्र, गदा, पद्म लिये बसुदेव देवकी को दरसन दिया। देखते ही अचंभे हो विन दोनों ने ज्ञान से बिचारा तो आदि पुरुष को जाना, तब हाथ जोड़ बिनती कर कहा―हमारे बड़े भाग जो अपने दरसन दिया और जन्म मरन का निबेड़ा किया।

इतना कह पहली कथा सब सुनाई जैसे जैसे कँस ने दुख दिया था। तहाँ श्रीकृष्णचंद बोले―तुम अब किसी बात की चिंता मन में अत करो, क्योकि मैंने तुम्हारे दुख के दूर करनेही को औतार लिया है, पर इस समै मुझे गोकुल पहुँचा दो और