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वक्तव्य

हिंदी गद्य साहित्य में प्रेमसागर एक प्रसिद्ध ग्रंथ है और अब तक इसके अनेकानेक संस्करण छप भी चुके हैं। शिक्षा-विषयक संग्रहो में बहुधा इसका कुछ न कुछ अंश उद्धृत किया जाता है। इस प्रकार पठित समाज में इसका बहुत प्रचार है। परंतु इधर इसके जितने संस्करण निकले हैं, वे सभी संस्कृतविज्ञ विद्वानों द्वारा शुद्ध कर दिए गए हैं, पर वे लल्लूजीलाला के प्रेमसागर से कितने भिन्न हैं, यह इस संस्करण से मिलान करनेपर मालूम हो सकता है। उन्होने संस्कृत के शब्दों को जो रूप दिया था, उनका इन नए संस्करणों में संस्कृत रूप ही दिया गया है, जिससे उस समय की शब्दरचना का ठीक ज्ञान नहीं हो सकता। इसी कमी को पूरा करने के लिये प्रेमसागर की वह प्रति प्राप्त की गई, जिसे स्वयं लल्लूजीलाल ने अपने यंत्रालय संस्कृत प्रेस में सन् १८१० ई० में प्रकाशित किया था। यह प्रति कलकत्ते की इम्पीरियल लाइब्रेरी से प्राप्त हुई थी, दूसरी प्रति जो सन् १८४२ ई० में प्रकाशित हुई थी, वह कलकत्ते के बोर्ड औव एक्जामिनर्स के पुस्तकालय से मिली है। उस पर लिखा है ‘श्रीयोगध्यानमिश्रेण परिष्कृत्य यथामति समंकितं लालकृतं प्रेमसागर पुस्तक॥’

पहली प्रति के टाइटिल पृष्ठ पर ‘हिदुवी’ था, परंतु वह दूसरी प्रति के टाहटिल पृष्ठ पर परिष्कृत होने से हिन्दी हो गया है। संपादक ने यथामति इस प्रति मे बहुत सा संशोधन कर दिया है। जब तीस बत्तीस वर्ष बाद ही के संस्करण में इतना संशोधन हो