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आठवाँ अध्याय


श्री शुकदेव मुनि बोले―

जिहि नक्षत्र मोहन भये सो नक्षत्र पन्यो आइ।
चारु बधाए रीति सब करत जसोदा माइ।।

जब सत्ताइस दिन के हरि हुए तब नंदजी ने सव ब्राह्मन औ ब्रजबासियो को नोता भेज दिया। वे आए, तिन्ही आदर मान कर बैठाया। आगे ब्राह्मनो को तो बहुत सा दान दे बिदा किया और भाइयो को बारे पहराय षटरस भोजन कराने लगे। तिस समै जसोदा रानी परोसती थीं, रोहनी टहल करती थीं, ब्रजबासी हँस हँस खा रहे थे, गोपियॉ गीत गा रही थीं, सब आनंद में ऐसे मगन थे कि कृष्ण की सुरत किसू को भी न थी। और कृष्ण एक भारी छकड़े के नीचे पालने में अचेत सोते थे कि इसमें भूखे। हो जगे, पॉव के अँँगुठे मुँँह में दे रोवन लगे औ हिलक हिलक चारो ओर देखने। विसी औसर उड़ता हुआ एक राक्षस आ निकला। कृष्ण को अकेला देख अपने मन मे कहने लगा कि यह तो कोई बड़ा बली उपजा है, पर आज मै इससे पूतना का बैर लूँगा। यो ठान सकट मे आन बैठा। तिसीसे उसका नाम सकटासुर हुआ। जब गाड़ा चड़चड़ायकर हिला, तब श्रीकृष्ण ने बिलकते बिलकते एक ऐसी लात मारी कि वह मर गया, और छकड़ा टूक टूक हो गिरा तो जितने बासन दूध दही के थे सब फूट चूर हुए औ गोरस की नदी सी बह निकली। गाड़े के टूटने और भॉड़ो के फूटने का शब्द सुन सब गोपी ग्वाल दौड़ आए, आते ही जसोदा ने कृष्ण को उठाय मुँँह चूँव छाती से लगा लिया। यह