पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/८

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गया था, तब आधुनिक संस्करणों के विषय मे कुछ तर्क वितर्क करना व्यर्थ है। इन दोनो प्रतियो का नाम क्रमात् क और ख रखा गया है और इन दोनों में जहाँ कोई पाठांतर मिला है, वह फुटनोट में दे दिया गया है। इस संस्करण का मूल आधार प्रथम प्रति है, परंतु दूसरी से भी साथ साथ मिलान कर लिया गया है।

इन दोनो प्रतियो के देखने से ज्ञात होता है कि लल्लूजी ने विभक्तियो को प्रकृति से अलग रखना ही उचित समझा था और उनके अनंतर भी यह प्रथा बराबर सर्वमान्य रही। अब उन्हे मिलाकर लिखने की प्रथा अधिक प्रचलित हो रही हैं, यहाँ तक कि 'होने से' भी मिलाकर लिखा जाने लगा है। कविता मे ऐसा करने से कुछ कठिनता हो सकती है जैसे 'मन का मनका फेर' मे मिलाने से होगा। प्रथम प्रति मे 'गये, आये' आदि में ये के स्थान पर ए का बहुधा प्रयोग किया गया है जो दूसरी प्रति मे से एक दम निकाल दिया गया है। इन प्रतियो मे पंचम वर्ण के स्थान पर अनुस्वार ही व्यवहार में लाया गया है।

इनके सिवा सन् १८६४ ई० की नवलकिशोर प्रेस द्वारा प्रकाशित एक प्रति मेरे पुस्तकालय में थी, जो उर्दू लिपि में छपी थी और इसे रूपांतरित करने का कार्य लाला स्वामीदयालजी ने किया था। यह प्रति रायल साइज़ के १७९ पृष्ठो की है और इसमे प्रायः बीस चित्र कृष्णलीला-संबंधी दिए है । इसमें प्रत्येक अध्याय के आरंभ उसके शीर्षक, जो इस संस्करण की विषयसूची मे दे दिए गए हैं, दिए हुए हैं। इस संस्करण का प्रथम अध्याय उर्दू प्रति में दो भागो में विभक्त है। छठे पृष्ठ के नए पैरा से प्रथम अध्याय प्रारंभ किया गया है और पूर्व अंश पर