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से तो घर के बाहर भी नहीं निकला मेरा कुँवर कन्हाई। ऐसाही सच बोलती हो। यह सुन औ अपना ही बालक हाथ में देख, वे हेस कर लजाय रहीं। तहाँ जसोदाजी ने कृष्ण को बुलाय के कहा―पुत्र, तुम किसू के यहाँ मत जाओ जो चहिये सो घर ने से ले खाओ।

सुन कै कान्ह कहत तुतुराय। मत मैया तू इन्हें पतियाय।
ये झूठी गोपी झूठौ बोले। मेरे पीछे लागी डोले।

कहीं दोहनी बछड़ा पकड़ाती हैं, कभी घर की दहल कराती हैं, मुझे द्वारे रखवाली बैठाय अपने काज को जाती हैं, फिर झूठमूठ आय तुमसे बातें लगाती है। यो सुना गोपी हरिमुख देख देख मुसकुरा कर चली गई।

आगे एक दिन कृष्ण बलराम सखाओं के संग बाखल में खेलते थे कि जो कान्ह ने मट्टी खाई तो एक सखा ने जसोदा से जा लगाई, वह क्रोध कर हाथ में छड़ी ले उठ धाई। मा को रिस भरी आती देख मुँह पीछ डरकर खड़े हो रहे। इन्होने जाते ही कहा―क्यों रे तूने माटी क्यों खाई। कृष्ण डरते कॉपते बोले, मा तुझसे किसने कहा।

ये बोलीं―तेरे सखा ने। तब मोहन ने कोप कर सखा से पूछा क्यो रे मैने भट्टी कब खाई है। वह भय कर बोला—भैया मैं तेरी बात कुछ नहीं जानता क्या कहूँगा। जो कान्ह सखा से बतराने लगे तो जसोदा ने उन्हें जा पकड़ा, तहाँ कृष्ण कहने लगे–मैया, तू मत रिसाय, कहीं मनुष भी मट्टी खाते है। वह बोली―मैं तेरी अटपटी बात नहीं सुनती, जो तू सच्चा है तो अपना मुख दिखा। जो श्रीकृष्ण ने मुख खोला तो उसमें तीनो लोक दृष्ट आए।