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ग्यारहवां अध्याय

श्रीशुकदेव जी बोले―हे राजा, श्रीकृष्ण को बँधे बँधे पूर्व जन्म की सुधि आई कि कुबेर के बेटो को नारद ने श्राप दिया है, तिनका उद्धार किया चाहिये। यह सुन राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से पूछा―महाराज, कुबेर के पुत्रों को नारद मुनि ने कैसे श्राप दिया था सो समझाय कर करो। शुकदेव मुनि बोले कि नल कूबर नाम कुबेर के दो लड़के कैलास में रहें, सो शिव की सेवा कर कर अति धनवान हुए। एक दिन स्त्रियाँ साथ ले वे वनबिहार को गये, वहाँ जाय मद पी मदमाते भये, तब नारियों समेत नंगे हो गंगा में न्हने लगे और गलबहियाँ डाल डाल अनेक अनेक भाँति की कलोले करने की इतने में तहाँ नारद मुनि आ निकले। विन्हें देखते ही रंडियों ने तो निकल कपड़े पहने और वे मतवारे वहीं खड़े रहे। विनकी दशा देख नारदजी मन में कहने लगे कि इनको धन का गर्व हुआ है, इसीसे मदमाते हो काम क्रोध को सुख मानते है। निरधन मनुष्य को अहंकार नहीं होता औ धनवान को धर्म अधर्म का विचार। कहा। मूरख झूठी देह से नेह कर भूले सँपत कुटुंंब देख के फूले। और साध न धनमद मन में आनें, संपत विपत एकसम माने। इतना कह नारद मुनि ने विन्हें श्राप दिया कि इस पाप से तुम गोकुल में जा बृक्ष हो, जब श्रीकृष्ण अवतार लेगे तब तुम्हें मुक्ति देगे। ऐसे नारद मुनि ने विन्हें सरापा था, तिसी से वे गोकुल में आ रूख हुए, तब विनका नाम यमलार्जुन हुआ।