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इतनी कथा कह सुकदेव जी बोले―महाराज, इसी बात की सुरत कर श्रीकृष्ण ओखली को घसीटे घसीटे वहाँ ले गये, जहाँ यमलार्जुन पेड़ थे, जाते ही विन दोनों तरवर के बीच उलूखल को आड़ा डाल एक ऐसा झटका मारा कि वे दोनो जड़ से उखड़ पड़े औ विनमे से दो पुरुष अति सुंदर निकल हाथ जोड स्तुति कर कहने लगे हे नाथ, तुम बिन हमसे महापापियो की सुध कौन ले। श्रीकृष्ण बोले―सुनो, नारदमुनि ने तुम पर बड़ी दुया की जो गोकुल में मुक्ति दी, विन्ही की कृपा से तुमने मुझे पाया, अब बर माँगो जो तुम्हारे मन में हो।

यमलार्जुन बोले―दीनानाथ, यह नारदजी की कृपा है जो आपके चरन परसे और दरसन किया, अब हमें किसी वस्तु की इच्छा नहीं, पर इतनाही दीजे जो सदा तुम्हारी भक्ति हृदे में रहे। यह सुन वर दे हँसकर श्रीकृष्णचंद ने तिन्ही बिदा किया।


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