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गाँठ बाँधी। जद सब मिलि जेंवन बैठे तद नंदराय बोले-सुनो भाइयो, अब इस गोकुल में रहना कैसे बने, दिन दिन होने लगे उपद्रव घने, चलो कहीं ऐसी ठौर जावे जहाँ तृन जल का सुख पावे। उपनंद बोले-बृंदाबन जाय बसिये तो आनंद से रहिये। यह बचन सुन नंदजी ने सबको खिलाय पिलाये पान दे बैठाय, त्योंहीं एक जोतिषी को बुलाय, यात्रा का महूर्त्त पूछ। विसने विचार के कहा—इस दिसा की यात्रा को कल का दिन अति उत्तम है। बाएँ जोगनी पीछे दिसासूल और सनमुख चंद्रमा है। आप निस्संदेह भोरही प्रस्थान कीजे।

यह सुन तिस समै तो सब गोपी ग्वाल अपने अपने घर गये, पर सबेरे ही अपनी अपनी वस्तु भाव गाड़ों पै लाद लाद आ इकट्ठे भये। तब कुटुम्ब समेत नंदजी भी साथ हो लिये और चले चले नदी उतर साँझ सबै जा पहुँचे। बंदादेवी को मनाय ब्रंदोबन बसाया। तहाँ सब सुख चैन से रहने लगे।

जद श्रीकृष्ण पाँच बरस के हुए तद मा से कहने लगे कि मैं बछड़े चरावने जाऊँगा, तू बलदाऊ से कह दे जो मुझे बन में अकेला न छोड़े। वह बोली―पूत, बछड़े चरावनेवाले बहुत है दास तुम्हारे, तुम मत पल ओट हो मेरे नैन आगे से प्यारे। कान्ह बोले जो मैं बन में खेलने जाऊँगा, तो खाने को खाऊँगा, नहीं तो नहीं। यह सुन जसोदा ने ग्वाल बालो को बुलाय कृष्ण बलराम को सोपकर कहा कि तुम बछड़े चरावने दूर मत जाइयो और साँझ न होते दोनों को संग ले घर आइयो। बन में इन्हे अकेले मत छोड़ियो, साथ ही साथ रहियो, तुम इनके रखवाले हो। ऐसे कह कलेऊ दे राम कृष्ण को विनके संगे कर दिया।