और अब लखनपुर के सिवा चार और छोटे-छोटे गॉव रह गये थे जिनसे कोई चार हजार वार्षिक लाभ होता था।
लाला जटाशकर के एक छोटे भाई थे। उनका नाम प्रभाशकर था। यही सियाह और सफेद के मालिक थे। बडे लाला साव को अपनी भागवत और गीता से परमा-नुराग था। घर का प्रबध छोटे भाई के ही हाथो में था। दोनो भाइयो मे इतना प्रेम था कि उनके बीच मे कभी कटु वाक्यो की नौबत न भायी थी। स्त्रियो मे तू-तू, मैं-मै होती थी, किंतु भाइयो पर इसका असर न पड़ता था। प्रभाशकर स्वय कितना ही कष्ट उठाये अपने भाई से कभी भूल कर शिकायत न करते थे। जटाशकर भी उनके किसी काम मे हस्तक्षेप न करते थे।
लाला जटाशकर का एक साल पूर्व देहात हो गया था। उनकी स्त्री उनके पहले ही मर चुकी थी। उनके दो पुत्र थे, प्रेमशकर और ज्ञानशकर। दोनो के विवाह हो चुके थे। प्रेमशकर चार-पांँच वर्षों से लापता थे। उनकी पत्नी श्रद्धा घर में पड़ी उनके नाम को रोया करती थी। ज्ञानशकर ने गत वर्ष बी० ए० की उपाधि प्राप्त की थी और इस समय हारमोनियम बजाने मे मग्न रहते थे। उनके एक पुत्र था, मायाशकर। लाला प्रभाशकर की स्त्री जीवित थी। उनके तीन बेटे और दो बेटियौ । बड़े बेटे दयाशकर सब-इन्स्पेक्टर थे। विवाह हो चुका था। बाकी दोनो लडके अभी मदरसे में अँगरेजी पढ़ते थे। दोनो पुत्रियाँ भी कुंँवारी थी।
प्रेमशकर ने वी० ए० की डिग्री लेने के बाद अमेरिका जा कर आगे पढने की इच्छा की थी, पर जब अपने चाचा को इसका विरोध करते देखा तो एक दिन चुपके से भाग निकले। घरवालो से पत्र-व्यवहार करना भी बद कर दिया। उनके पीछे ज्ञानशकर ने बाप और चाचा से लडाई ठानी। उनकी फजूलम्बचियो की आलोचना किया करते। कहते, क्या आप लोग हमारे लिए कुछ भी नहीं छोड़ जायेगे? क्या आपकी यही इच्छा है कि हम रोटियो को मोहताज हो जायें ? किन्तु इसका जवाब यही मिलता, भाई हम लोग तो जिस प्रकार अब तक निभाते आये है उसी प्रकार निभायेगे। यदि तुम इससे उत्तम प्रबध कर सकते हो तो करो, जरा हम भी देखे । ज्ञानशकर उस समय कालेज मे थे, यह चुनौती सुन कर चुप हो जाते थे। पर जब से वह डिग्री ले कर आये थे और इधर उनके पिता का देहात हो चुका था, उन्होने घर के प्रवध मे सशोधन करने का यत्न करना शुरू किया था, जिसका फल यह हुआ था कि उस मेल-मिलाप मे बहुत कुछ अतर पड चुका था, जो पिछले साठ वर्षों से चला आता था । न चाचा का प्रबध भतीजे को पसद था, न भतीजे का चाचा को। आये दिन शाब्दिक सग्राम होते रहते । ज्ञानशकर कहते, आपने सारी जायदाद चौपट कर दी, हम लोगो को कही का न रखा। सारा जीवन खाट पर पड़े-पडे पूर्वजो की कमाई खाने मे काट दिया । मर्यादा-रक्षा की तारीफ तो तब थी जब अपने बाहुबल से कुछ करने, या जायदाद को बचा कर करते। घर बैच कर तमाशा देखना कोन-सा मुश्किल काम हे ? लाला प्रभाशकर यह कटु वाक्य सुन कर अपने भाई को याद करते और उनका नाम ले कर रोने लगते । यह चोटे उनसे सही न जाती थी।