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प्रेमाश्रम


ज्ञान-देखना चाहिए, मैं अपनी तरफ से तो उन्हें शिकायत का मौका न दूंगा।

राय-आप दें या न दें, वह स्वयं ढूंढ निकलेंगे। संम्भव है, मेरी शंका निर्मूल हो। मेरी हार्दिक इच्छा है कि निर्मूल हो पर मेरा अनुभव हैं कि विदेश में बहुत दिनों तक रहने से प्रेम का बन्धन शिथिल हो जाता है।

ज्ञानशंकर अब अपने मनोभावों को छिपा न सके। खुल कर बोले–मुझे भी यहीं भय है। जब छ साल में उन्होंने घर पर एक पत्र तक नहीं लिखा तो विदित ही है। कि उनमें आत्मीयता का आधिक्य नहीं हैं। आप मेरे पिता तुल्य है, आपसे पर्दा क्या है। इनके आने से मेरे सारे मंसूबे मिट्टी में मिल गये। मैं समझा था चाचा साहब से अलग हो कर दो-चार वर्षों में मेरी दशा कुछ सुधर जायगी। मैंने ही चाची साहब को अलग होने पर मजबूर किया, जायदाद की बाँट भी अपनी इच्छा के अनुसार की, जिसके लिए चाचा साहब की सन्तान मुझे सदैव कोसती रहेगी। किन्तु सब किया कराया बेकार गया।

राय साहब--कहीं उन्होंने गत वर्षों के मुनाफे का दावा कर दिया तो आप बड़ी मुश्किल में फँस जायेंगे। इस विपय में वकीलों की सम्मति लिए बिना आप कुछ न कीजिएगा।

इस भाँति ज्ञानशंकर की शंकाओं को उत्तेजित करने मे रायसाहब का आशय क्या थी, इसको समझना कठिन है। शायद यह उनके हृद्गत भावों की थाह लेना चाहते थे अथवा उनकी क्षुद्रता और स्वार्थपरता का तमाशा देखने का विचार था। वह तो यह चिनगारी दिखा कर हवा खाने चल दिये। बेचारे ज्ञानशंकर अग्नि-दाह मे जलने लगे। उन्हें इस समय नाना प्रकार की शंकाएँ हो रही थी। उनका वह तत्क्षण समाधान करना चाहते थे। क्या भाई साहब गत वर्षों के मुनाफे का दावा कर सकते हैं। यदि वह ऐसा करें, तो मेरे लिए भी निकास का कोई उपाय है या नहीं? क्या राय साहब को अधिकार है कि वह रियायत पर ऋणों का बोझ लादते जायें? उनकी फजूलखर्ची को रोकने की कोई कानूनी तदवीर हो सकती हैं या नहीं? इन प्रश्नों से ज्ञानशंकर के चित्त मे घोर अशान्ति हो रही थी, उनकी मानसिक वृत्तियाँ जल रही थी। वह उठ कर राय साहब के पुस्तकालय में गये और एक कानून की किताब निकाल कर देखने लगे। इस किताब से शंका निवृत्त न हुई। दूसरी किताब निकाली, यहाँ तक कि थोड़ी देर में मेज पर किताबों का ढेर लग गयी। कभी इस पोथी के पन्ने उलटते थे, कभी उस पोथी के, किन्तु किसी प्रश्न का सन्तोषप्रद उत्तर न मिला। हताश हो कर वे इधर-उघर ताकने लगे। घड़ी पर निगाह पड़ी। दस बजना चाहते थे। किताब समेट कर रख दी। भोजन किया, लेटे, किन्तु नीद कहाँ? चित्त की चंचलता निद्रा की बाधक है। अब तक वह स्वयं अपने जीवन-सागर के रक्षा-तट थे। उनकी सारी आकांक्षाएँ इसी तट पर विश्राम किया करती थी। प्रेमशंकर ने आकर इस रक्षा-तट को विध्वंस कर दिया था और उन नौकाओं को डावाँ डोल। भैया क्योंकर काबू में आयेंगे? खुशामद से? कठिन है, वह एक ही घाघ है। नम्रता और विनय से? असम्भव। नम्रता का