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प्रेमाश्रम

जान-पहचान के आदमी से भेंट न हो जाय।

दोनों आदमी ताँगे पर बैठे; तो प्रेमशंकर बोले, छह साल के बाद आता हूँ, पर ऐसा मालूम होता है कि यहाँ से गये थोड़े ही दिन हुए है। घर पर तो सब कुशल है न?

ज्ञान- जी हाँ, सब कुशल है। आपने तो इतने दिन हो गये, एक पत्र भी न भेजा, बिल्कुल भुला दिया। आप के ही वियोग में बाबू जी के प्राण गये।

प्रेम-वह शोक समाचार तो मुझे यहाँ के समाचार पत्र से मालूम हो गया था, पर कुछ ऐसे ही कारण थे कि आ न सका। "हिन्दुस्तान रिव्यू में तुमने नैनीताल के जीवन पर जो लेख लिखा था, उसे पढ़ कर मैंने आने का निश्चय किया। तुम्हारे उन्नत विचारों ने ही मुझे खीचा, नहीं तो सम्भव है, मैं अभी कुछ दिन और न आता। तुम पालिटिक्स (राजनीति) में भाग लेते हो न?

ज्ञान--(सकोच भाव से) अभी तक तो मुझे इसका अवसर नहीं मिला। हाँ, उसकी स्टडी (अध्ययन) करता रहता हूँ।

प्रेम-कौन-सा प्रोफेशन (पेशा) अख्तियार किया?

ज्ञान अभी तो घर के ही झंझटों से छुट्टी नहीं मिली। जमींदारी के प्रबंध के लिए मेरा घर रहना जरूरी था। आप जानते है यह जंजाल है। एक न एक झगड़ा लगा ही रहता है। चाहे उससे लाभ कुछ न हो पर मन की प्रवृत्ति आलस्य की ओर हो जाती है। जीवन के कर्म-क्षेत्र में उतरने का साहस नही होता। यदि यह अवलम्बन न होता तो अब तक मैं अवश्य वकील होता।

प्रेम तो तुम भी मिल्कियत के जाल में फंस गये और अपनी बुद्धि-शक्तियों का दुरुपयोग कर रहे हो? अभी जायदाद के अन्त होने में कितनी कसर है?

ज्ञान-चाचा साहब का बस चलता तो कभी का अन्त हो चुका होता, पर शायद अब जल्द अन्त न हो। मैं चाचा साहब से अलग हो गया हूँ।

प्रेम-खेद के साथ? यह तुमने क्या किया। तब तो उनको गुजर बड़ी मुश्किल से होता होगा?

ज्ञान-कोई तकलीफ नहीं है। दयाशंकर पुलिस में है और जायदाद से दो हजार मिल जाते है।

प्रेम-उन्हें अलग होने का दुःख तो बहुत हुआ होगा। वस्तुत मेरे भागने का मुख्य कारण उन्हीं का प्रेम था। तुम तो उस वक्त शायद स्कूल में पढ़ते थे, मैं कालेज से ही स्वराज्य आन्दोलन में अग्रसर हो गया। उन दिनों नेतागण स्वराज्य के नाम से काँपते थे। इस आन्दोलन में प्राय नवयुवक ही सम्मिलित थे। मैंने साल भर बड़े उत्साह से काम किया। पुलिस ने मुझे फंसाने का प्रयास करना शुरू किया। मुझे ज्यों ही मालूम हुआ कि मुझ पर अभियोग चलाने की तैयारियाँ हो रही है, त्यों ही मैंने जान ले कर भागने में ही कुशल समझीं। मुझे फंसे देख कर बाबू जी तो चाहे धैर्यं से काम लेते, पर चचा साहब निस्सन्देह आत्म-हत्या कर लेते। इसी भय से मैंने पत्रव्यवहार भी बन्द कर दिया कि ऐसा न हो, पुलिस यहाँ लोगों को तंग करे। बिना