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प्रेमाश्रम

देशाटन किये अपनी पराधीनता का यथेष्ट ज्ञान नहीं होता। जिन विचारों के लिए मैं यहाँ राजद्रोही समझा जाता था, उससे कही स्पष्ट बातें अमेरिका वाले अपने शासकों को नित्य सुनाया करते है, बल्कि वहाँ शासन की समालोचना जितनी ही निर्भीक हो उतनी ही आदरणीय समझी जाती है। इस बीच में यहाँ भी विचार-स्वातंत्र्य की कुछ वृद्धि हुई है। तुम्हारा लेख इसका उत्तम प्रमाण है। इन्हीं सुव्यवस्थाओं ने मुझे आने पर प्रोत्साहित किया और सत्य तो यह है कि अमेरिका से दिनों दिन अभक्ति होती जाती थी। वहाँ धन और प्रभुत्व की इतनी क्रूर लीलाएँ देखी कि अन्त में उनसे घृणा हो गयी। यहाँ के देहातों और छोटे शहरों का जीवन उससे कही सुख कर है। मेरा विचार भी सरल जीवन व्यतीत करने का है। हाँ, यथासाध्य कृषि की उन्नति करना चाहता हूँ।

ज्ञान—यह रहस्य आज खुला। अभी तक मैं और घर के सभी लोग यही समझते थे कि आप केवल विद्योपार्जन के लिए गये है। मगर आज कल तो स्वराज्यान्दोलन बहुत शिथिल पड़ गया है। स्वराज्यवादियों की जान ही बन्द कर दी गयी है।

प्रेम-यह तो कोई बुरी बात नहीं, अब लोग बाते करने की जगह काम करेंगे। हमें बात करते एक युग बीत गया। मुझे भी शब्दों पर विश्वास नहीं रहा। हमें अब संगठन की, परस्पर प्रेम-व्यवहार की और सामाजिक अन्याय को मिटाने की जरूरत है। हमारी आर्थिक दशा भी खराब हो रही है। मेरा विचार कृषि विधान में संशोधन करने का है। इसलिए मैंने अमेरिका में कृषिशास्त्र का अध्ययन किया है।

यो बातें करते हुए दोनों भाई मकान पर पहुँचे। प्रेमशंकर को अपना घर बहुत छोटा दिखाई दिया। उनकी आँखें अमेरिका की गगनस्पर्शी अट्टालिकाओं के देखने को आदी हो रही थी। उन्हें कभी अनुमान ही न हुआ था कि मेरा घर इतना पस्त है। कमरे में आये तो उसकी दशा देख कर और भी हताश हो गये। जमीन पर फर्श तक न था। दो-तीन कुसियाँ जरूर थी, लेकिन बाबा आदम के जमाने की, जिन पर गर्द जमी हुई थी। दीवारों पर तस्वीरे नयी थी, लेकिन बिलकुल भद्दी और अस्वाभाविक। यद्यपि वह सिद्धान्त रूप से विलास-वस्तुओं की अवहेलना करते थे, पर अभी तक रुचि उनकी ओर से न हटी थी।

लाला प्रेमाशंकर उनकी राह देख रहे थे। आ कर उनके गले से लिपट गये और फूट-फूट कर रोने लगे। महल्ले के और सज्जन भी मिलने आ गये। दो-ढाई घंटों तक प्रेमशंकर उन्हें अमेरिका के वृत्तान्त सुनाते रहे। कोई वहाँ से हटने का नाम न लेता था। किसी को यह ध्यान न होता था कि ये बेचारे सफर करके आ रहे है, इनके नहाने खाने का समय आ गया है, यह बाते फिर सुन लेंगे। आखिर ज्ञानशंकर को साफ-साफ कहना पड़ा कि आप लोग कृपा करके भाई साहब को भोजन करने का समय दीजिए, बहुत देर हो रही है।

प्रेमशंकर ने स्नान किया, सन्ध्या की और ऊपर भोजन करने गये। इन्हें आशा थी कि श्रद्धा भोजन परसेगी, वही उससे भेंट होगी, खूब बाते करूंगा। लेकिन यह