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प्रेमाश्रम

आशा पूरी न हुई। एक चौकी पर कालीन बिछा हुआ था, थाल परसा रखा था, पर श्रद्धा वहाँ उनका स्वागत करने के लिए न थी। प्रेमशंकर को उसकी इस प्रेम शून्यता पर बड़ा दुख हुआ। उनके लौटने का एक मुख्य कारण श्रद्धा से प्रेम था। उसकी याद इन्हें हमेशा तड़पाया करती थी, उसकी प्रेम-मूर्ति सदैव उनके हृदय नेत्रों के सामने रहती थी। उन्हें प्रेम के बाह्याडम्बर से घृणा थी। वह अब भी स्त्रियों की श्रद्धा, पतिभक्ति, लज्जाशीलता और प्रेमानुराग पर मोहित थे। उन्हें श्रद्धा को नीचे दीवानखाने मे देख कर खेद होता, पर उसे यहाँ न देख कर उनका हृदय ब्याकुल हो गया। यह लज्जा नहीं, हया नहीं, प्रेम शैथिल्य है। इतने मर्माहत हुए कि जी चाहा इसी क्षण यहाँ से चला जाऊँ और फिर आने का नाम न लें पर धैर्य से काम लिया। भोजन पर बैठे। ज्ञानशंकर से बोले, आयो भाई बैठो। माया कहाँ है, उसे भी बुलाओ, एक मुद्दत के बाद आज सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

ज्ञानशंकर ने सिर नीचा करके कहा-आप भोजन कीजिए, मैं फिर खा लूँगा।

प्रेम-ग्यारह तो बज रहे हैं, अब कितनी देर करोगे? आओ, बैठ जाओ। इतनी चीजें मैं अकेले कहाँ तक खाऊँगा? मुझे अन्न धैर्य नहीं है। बहुत दिनों के बाद चपातियों के दर्शन हुए हैं। हलुआ, समोसे, सौर आदि का तो स्वाद ही मुझे भूल गया। अकेले खाने में आनन्द नहीं आता। यह कैसा अतिथि सत्कार है कि मैं तो यहाँ भोजन करू और तुम कहीं और। अमेरिका में तो मेहमान इसे अपना घोर अपमान समझता।

ज्ञान- मुझे तो इस समय क्षमा ही कीजिए। मेरी पाचन-शक्ति दुर्बल है, बहुत पथ्य से रहता हूँ।

प्रेमशंकर भूल ही गये थे कि समुद्र में जाते ही हिन्दू-धर्मं धुल जाता है। अमेरिका से चलते समय उन्हें ध्यान भी न था कि बिरादरी मेरा बहिष्कार करेगी, यहाँ तक कि मेरा सहोदर भाई भी मुझे अछूत समझेगा। पर इस समय जब उनके बराबर आग्रह करने पर भी ज्ञानशंकर उनके साथ भोजन करने नहीं बैठे और एक न एक बहाना करके टालते रहे तो उन्हें वह भूली हुई बात याद आ गयी। सामने के बर्तनों ने इस विचार को पुष्ट कर दिया, फूल या पीतल का कोई बर्तन न था। सब बर्तन चीनी के थे और गिलास शीशे का। शकित भाव से बोले, आखिर यह बात क्या है कि तुम्हें मेरे साथ बैठने में इतनी आपत्ति है? कुछ छूत-छात का विचार तो नहीं है?

ज्ञानशंकर ने झेपते हुए कहा, अब मैं आपसे क्या कहूँ? हिन्दुओं को तो आप जानते ही हैं, कितने मिथ्यावाद होते है। आपके लौटने का समाचार जब से मिला है, सारी बिरादरी में एक तूफान सा उठा हुआ है। मुझे स्वयं विदेश यात्रा में कोई आपत्ति नहीं है। मैं देश और जाति की उन्नति के लिए इसे जरूरी समझता है और स्वीकार करता हूँ कि इस नाकेबंदी से हमको बड़ी हानि हुई है, पर मुझे इतना साहस नहीं है कि विरादरी से विरोध कर सकें।

प्रेम—अच्छा यह बात है। आश्चर्य है कि अब तक क्यों मेरी आँखों पर परदा