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प्रेमाश्रम

पडा रहा ? अब मैं ज्यादा आग्रह न करूँगा । भोजन करता हूँ, पर खेद यह है कि तुम इतने विचारशील हो कर बिरादरी के गुलाम बने हुए हो, विशेषकर जब तुम मानते हो। कि इस विषय में बिरादरी का बन्धन सर्वया असगत है। शिक्षा का फल यह होना चाहिए कि तुम बिरादरी के सूत्रधार बनो, उसको सुधारने का प्रयास करो, न यह कि उसके दवाव से अपने सिद्धातो को बलिदान कर दो। यदि तुम स्वाधीन भाव से समुद्र यात्रा को दूषित समझते तो मुझे कोई आपत्ति न होती । तुम्हारे विचार और व्यवहार अनुकूल होते। लेकिन अन्त करण से किसी बात से कायल हो कर केवल निन्दा या उपहास के भय से उसका व्यवहार न करना तुम जैसे उदार पुरुष को शोभा नहीं देता। अगर तुम्हारे धर्म में किसी मुसाफिर की बातों पर विश्वास करना मना न हो तो मैं तुम्हे यकीन दिलाता हूँ कि अमेरिका में मैंने कोई ऐसा कर्म नही किया जिसे हिन्दू-धर्म निषिद्ध ठहराता हो । मैंने दर्शन शास्त्रों पर कितने ही व्याख्यान दिये, अपने रस्म-रिवाज और वर्णाश्रम धर्म का समर्थन करने मे सदैव तत्पर रहा, यहाँ तक कि पर्दे की रस्म की भी सराहना करता रहा, और मेरा मन इसे कभी नहीं मान सकता कि यहाँ किसी को मुझे विधर्मी समझने का अधिकार है। मैं अपने धर्म और मत का वैसा ही भक्त हूँ, जैसा पहले-- था बल्कि उससे ज्यादा। इससे अधिक मैं अपनी सफाई नहीं दे सकता।

ज्ञान--इस सफाई की तो कोई जरूरत ही नहीं, क्योकि यहाँ लोगो को विदेश-यात्रा पर जो अश्रद्धा है, वह किसी तर्क या सिद्धान्त के अधीन नहीं है। लेकिन इतना तो आपको भी मानना पड़ेगा कि हिन्दू-धर्म कुछ रीतियों और प्रथाओं पर अवलम्बित है और विदेश में आप उनका पालन समुचित रीति से नहीं कर सकते। आप वेदो से इन्कार कर सकते है, ईसा या मूसा के अनुयायी बन सकते है, किन्तु इन रीतियो को नही त्याग सकते । इसमे सन्देह नहीं कि दिनों-दिन यह वन्धन ढीले होते जाते हैं और इसी देश में ऐसे कितने ही सज्जन हैं जो प्रत्येक व्यवहार का भी उल्लघन करके भी हिन्दू बने हुए है, किन्तु बहुमत उनकी उपेक्षा करता है और उनको निन्द्य समझता है। इसे आप मेरी आत्मभीरुता या अकर्मण्यता समझे, किन्तु मैं बहुमत के साथ चलना अपना कर्तव्य समझता हूँ । मैं बलप्रयुक्त सुधार का कायल नहीं हूँ। मेरा विचार है कि हम बिरादरी में रह कर उससे कहीं अधिक सुधार कर सकते हैं। जितना स्वाधीन हो कर ।

प्रेमशंकर ने इसका कुछ जवाब न दिया । भोजन करके लेटे तो अपनी परिस्थिति पर विचार करने लगे। मैंने समझा था यहाँ शान्तिपूर्वक अपना काम करूँगा, कम से कम अपने घर में कोई मुझसे विरोध न करेगा, किन्तु देखता हूँ, यहाँ कुछ दिन घोर अशान्ति का सामना करना पड़ेगा । ज्ञानशकर के उदारतापूर्ण लेख ने मुझे भ्रम में डाल दिया । खैर कोई चिंता नहीं । विरादरी मेरा कर ही क्या सकती हैं उसमे रह कर मुझमें कौन से सुर्खाब के पर लग जायेंगें । अगर कोई मेरे साथ नहीं खाता तो न खाय, मैं उसके साथ न खाऊँगा । कोई मुझसे बात नहीं करता, न करे, मैं