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प्रेमाश्रम

रहूँगा। वाह! परदेश क्या गया, मानो कोई पाप किया; पर पापियों को तो कोई बिरादरी से च्युत नहीं करता। धर्म बेचनेवाले, ईमान बेचनेवाले, सन्तान बेचनेवाले बगले बजाते हैं, कोई उनकी और कड़ी आँख से देख नहीं सकता। ऐसे पतितो, ऐसे भ्रष्टाचारियों में रहने के लिए मैं अपनी आत्मा का सर्वनाश क्यों करूंँ?

अकस्मात् उन्हें ध्यान आया, कहीं श्रद्धा भी मेरा बहिष्कार न कर रही हो! इन अनुदार भावों को उस पर भी असर न पड़ा हो। फिर तो मेरा जीवन नष्ट हो जायगा। इस शंका ने उन्हें घोर चिन्ता में डाल दिया और तीसरे पहर तक उनकी व्यग्नता इतनी बढ़ी कि वह स्थिर न रह सके। माया से श्रद्धा का कमरा पूछ कर ऊपर चढ गयें।

श्रद्धा इस समय अपने द्वार पर इस भाँति खड़ी थी, जैसे पथिक रास्ता भूल गया हो। उसका हृदय आनन्द से नहीं, एक अव्यक्त भय से कांप रहा था। यह शुभ दिन देखने के लिए उसने तपस्या की थी। यह आकांक्षा उसके अन्धकारमय जीवन को। दीपक, उसकी डूबती हुई नौका की लंगर थी। महीने के तीस दिन और दिन के चौबीस घंटे यही मनोहर स्वप्न देखने में करते थे। विडम्बना यह थी कि वे आकांक्षाएं और कामनाएं पूरी होने के लिए नहीं, केवल तड़पाने के लिए थी। वह दाह और संतोष शान्ति का इच्छुक न था। श्रद्धा के लिए प्रेमशंकर केवल एक कल्पना थे। इसी कल्पना पर बह प्राणार्पण करती थी। उसकी भक्ति केवल उनकी स्मृति पर थी, जो अत्यन्त मनोरम, भावमय और अनुरागपूर्ण थी। उनकी उपस्थिति ने इस सुखद कल्पना और मधुर स्मृति का अन्त कर दिया। वह जो उनकी याद पर ज्ञान देती थी, अत्र उनकी सत्ता से भयभीत थी, क्योंकि वह कल्पना धर्म और सतीत्व की पोषक थी, और यह सत्ता उनकी घातक। श्रद्धा को सामाजिक अवस्था और समयोचित आवश्यकताओं को ज्ञान था। परम्परागत बन्धनों को तोड़ने के लिए जिस विचार स्वातंत्र्य और दिव्य ज्ञान की जरूरत थी उससे वह रहित थी। वह एक साधारण हिंदू अबली थी। वह अपने प्राणों से, अपने प्राणप्रिय स्वामी के हाथ धो सकती थी, किंतु अपने धर्म की अवज्ञा करना अथवा लोक-निंदा को सहन करना उसके लिए असंभव था। जब से उसने सुना था कि प्रेमशंकर घर आ रहे है, उसकी दशा इस अपराधी की सी हो रही थी, जिसके सिर पर नगी तलवार लटक रही हो। आज जब से वह्। नीचे आ कर बैठे थे उसके आँसू एक क्षण के लिए भी न थमते थे। उसका हृदय काँप रहा था कि कहीं वह ऊपर न आते हो, कहीं वह आ कर मेरे सम्मुख खड़े न हो जायँ, मेरे अंग को स्पर्श न कर लें! मर जानी इससे कहीं आसान था। मैं उनके सामने कैसे खड़ी हूँगी, मेरी आँखें क्योंकर उनसे मिलेगी, उनकी बातों का क्योंकर जवाब देंगी? वह इन्हीं जटिल चिंताओं में मग्न खड़ी थी कि इतने में प्रेमशंकर उसके सामने आ कर खड़े ही हो गये। श्रद्धा पर अगर बिजली गिर पड़ती, भूमि उसके पैरों के नीचे से सरक जाती अथवा कोई सिंह आ कर खड़ा हो जाता तो भी वह इतनी असावधान हो कर अपने कमरे में भाग न जाती। वह तो भीतर जा कर एक कोने में खड़ी हो गयी। भय से उसका एक-एक रोम काँप रहा था। प्रेमशंकर सन्नाटे में आ