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प्रेमाश्रम

गये। कदाचित् आकाश, सामने से लुप्त हो जाता तो भी उन्हें इतना विस्मय न होता। वह क्षण भर मूर्तिवत खड़े रहे और एक ठंडी साँस ले कर नीचे की ओर चले। श्रद्धा के कमरे में जाने, उससे कुछ पूछने या कहने का उन्हें साहस न हुआ। इस दुरनुराग ने उनका उत्साह भग कर दिया, उन काव्यमय स्वप्नों का नाश कर दिया जो बरसों से उनकी चैतन्यावस्था के सहयोगी बने हुए थे। श्रद्धा ने किवाड़ की आड़ से उन्हें जीने की ओर जाते देखा। हा! इस समय उसके हृदय पर क्या बीत रही थी, कौन जान सकता है? उसका प्रिय पति जिसके वियोग में उसने सात वर्ष रो-रो कर काटे थे सामने से भग्न हृदय, हताश चला जा रहा था और वह इस भाँति संशक खड़ी थी मानों आगे कोई बृहद जलागार है। धर्म पैरों को बढ़ने न देता था। प्रेम उन्मत्त तर की भाँति बार-बार उमड़ता था, पर धर्म की शिला से टकरा कर लौट आता था। एक बार वह अधीर हो कर चली कि प्रेमशंकर का हाथ पकड़ कर फेर लाऊँ, द्वार तक आयी, पर आगे न बढ़ सकी। धर्म ने ललकार कर कहा, प्रेम नश्वर हैं, निस्सार है, कौन किसका पति और कौन किसकी पत्नी? यह सब माया-जाल है। मैं अविनाशी हैं, मेरी रक्षा करो। श्रद्धा स्तम्भित हो गयी। मन में स्थिर किया जो स्वामी सात समुन्दर पार गया; वहाँ न जाने क्या खाया, क्या पीया, न जाने किसके साथ रहा, अब उससे क्या नाता? किन्तु प्रेमशंकर जीने से नीचे उतर गये तब श्रद्धा मूर्छित हो कर गिर गयी। उठती हुई लहरे टीले को न तोड़ सकी, पर तटो को जल मग्न कर गयी।



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प्रेमशंकर यह दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छुटनेवाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आयात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा करते कि फिर अमेरिका चला जाऊँ और फिर जीवन पर्यन्त आने का नाम न लूँ। किन्तु यह आशा कि कदाचित देश और समाज की अवस्था का ज्ञान श्रद्धा में सदविचार उत्पन्न कर दे, उनका दामन पकड़ लेती थी। दिन के दिन दीवानखाने में पड़े रहते, न किसी से मिलना, ने जुलना, कृषि-सुधार के इरादे स्थगित हो गये। उस पर विपत्ति यह थी कि ज्ञानशंकर बिरादरीवालों के षडयन्त्रों के समाचार ला कर उन्हें और भी उद्विग्न करते रहते थे। एक दिन खबर लाये कि लोगों ने एक महती सभा करके आपको समाज-च्युत करने का प्रस्ताव पास कर दिया। दूसरे दिन ब्राह्मणों की एक सभा की खबर लाये, जिसमें उन्होंने निश्चय किया था कि कोई प्रेमशंकर के घर पूजा-पाठ करने न जाए। इसके एक दिन पीछे श्रद्धा के पुरोहित जी ने आना छोड़ दिया। ज्ञानशंकर बातों-बातों मे यह भी जना दिया करते थे कि आपके कारण मैं भी बदनाम हो रहा हूँ और शंका है कि लोग मुझे भी त्याग दे। भाई के साथ तो यह व्यवहार था, और बिरादरी के नेताओं के पास आ कर प्रेमशंकर के झूठे आक्षेप करते वह देवताओं को गालियाँ देते हैं, कहते हैं, माँस सब एक है, चाहे किसी का हो। खाना खा कर कभी हाथ-मुँह तक नहीं