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प्रेमाश्रम

धोते। कहते हैं, चमार भी कर्मानुसार ब्राह्मण हो सकता है। यह बातें सुन-सुन कर बिरादरीवालों की द्वेषाग्नि और भी भड़कती थी, यहाँ तक कि कई मनचले नवयुवक तो इस पर उद्यत थे कि प्रेमशंकर को कहीं अकेले पा जायें तो उनकी अच्छी तरह खबर ले। 'तिलक' एक स्थानीय पत्र था। उसमें इस विषय पर खूब जहर उगला जाता था। ज्ञानशंकर नित्य वह पत्र ला कर अपने भाई को सुनाते और यह सब केवल इसलिए कि वह निराश और भयभीत हो कर यहाँ से भाग खड़े हो और मुझे जायदाद में हिस्सा न देना पड़े। प्रेमशंकर साहस और जीवट के आदमी थे, इन धमकियों की उन्हें परवाह न थी, लेकिन उन्हें मजूर न था कि मेरे कारण ज्ञानशंकर पर आँच आये। श्रद्धा की ओर से भी उनका चित्त फटता जाता था। इस चिन्तामय अवस्था का अन्त करने के लिए वह कहीं जा कर शान्ति के साथ रहना और अपने जीवनोद्देश्य को पूरा करना। चाहते थे। पर जायें कहाँ? ज्ञानशंकर से एक बार लखनऊ में रहने की इच्छा प्रकट की थी, पर उन्होंने इतनी आपत्तियां खड़ी की, कष्टों और असुविधाओं का ऐसा चित्र खीचा कि प्रेमशंकर उनकी नीयत को ताड़ गये। वह शहर के निकट ही थोड़ी सी ऐसी जमीन चाहते थे, जहाँ एक कृषिशाली खोल सकें। इसी धुन में नित्य इधर-उधर चक्कर लगाया करते थे। स्वभाव में संकोच इतना कि किसी से अपने इरादे जाहिर नहीं करते। हाँ, लाला प्रभाशंकर का पितृवत प्रेम और स्नेह उन्हें अपने मन को विचार प्रकट करने पर बाध्य कर देता था। लाला जी को जब अवकाश मिलता, वह प्रेमशंकर के पास आ बैठते और अमेरिका के वृत्तान्त बड़े शौक से सुनते। प्रेमशंकर दिनों-दिन उनकी सज्जनता पर मुग्ध होते जाते थे। ज्ञानशंकर तो सदैव उनका छिद्रान्वेषण किया करते पर उन्होंने कभी भूल कर भी ज्ञानशंकर के खिलाफ जबान नहीं खोली। वह प्रेमशंकर के विचार से सहमत न होते थे, यही सलाह दिया करते कि कही सरकारी नौकरी कर लो।

एक दिन प्रेमशंकर को उदास और चिन्तित देख कर लाला जी बोले, क्या यहाँ जी नही लगता है।

प्रेम--मेरा विचार है कि कही अलग मकान ले कर रहूँ। यहाँ मेरे रहने से सबको कष्ट होता है।

प्रभा-मेरे घर उठ चलो, वह भी तुम्हारा ही घर है। मैं भी कोई बेगाना नहीं हैं। वहाँ तुम्हे कोई कष्ट न होगा। हम लोग इसे अपना धन्य भाग समझेंगे। कही नौकरी के लिए लिखा?

प्रेम-—मेरा इरादा नौकरी करने का नहीं है।

प्रमा--आखिर तुम्हें नौकरी से क्यों इतनी नफरत है नौकरी कोई बुरी चीज है?

प्रेम-जी नहीं, मैं उसे बुरा नहीं कहता। पर मेरा मन उससे भागता है।

प्रभा—तो मन को समझाना चाहिए न? आज सरकारी नौकरी का जो मानसम्मान है, वह और किस का है? और फिर आमदनी अच्छी, काम कम, छुट्टी ज्यादा। व्यापार में नित्य हानि का भय, जमींदारी में नित्य अधिकारियों की खुशामद