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प्रेमाश्रम

और असामियों के बिगड़ने का खटका। नौकरी इन पैसों से उत्तम है। खेती-बारी का शौक उस हालत में भी पूरा हो सकता है। यह तो रईसों के मनोरंजन की सामग्री है। अन्य देशों के हालात तो नहीं जानता, पर यहाँ किसी रईस के लिए खेती करना अपमान की बात है। मुझे भूखों मरना कबूल है, पर दुकानदारी या खेती करना कबूल नहीं।

प्रेम--आपको कथन सत्य है, पर मैं अपने मन से मजबूर हैं। मुझे थोड़ी सी जमीन की तलाश है, पर इधर कहीं नजर नहीं आती।

प्रभा–अगर इसी पर मन लगा है तो करके देख लो। क्या कहें, मेरे पास शहर के निकट जमीन नहीं है, नहीं तुम्हें हैरान न होना पड़ता। मेरे गाँव में करना चाहो तो जितनी जमीन चाहो मिल सकती है; मगर दूर है।

इसी हैस-बैस में चैत का महीना गुजर गया। प्रेमशंकर ने कृषि-प्रयोगशाला की आवश्यकता की और रईसों का ध्यान आकर्षित करने के लिए समाचार-पत्रो में कई, विद्वत्तापूर्ण लेख छपवाये। इन लेखों का बड़ा आदर हुआ। उन्हें पत्रों ने उद्धृत किया, उन पर टीकाएँ की और कई अन्य भाषाओं में उनके अनुवाद भी हुए। इसका फल यह हुआ कि तालुकेदार एसोसिएशन ने अपने वार्षिकउत्सव के अवसर पर प्रेमशंकर को कृषि-विषयक एक निबन्ध पढ़ने के लिए निमन्त्रित किया। प्रेमशंकर आनन्द से फूले न समाये। वहीं खोज और परिश्रम से एक निबन्ध लिखा और लखनऊ आ पहुँचे। केसरबाग में इस उत्सव के लिए एक विशाल पंडाल बनाया गया था। राय कमलानन्द इस सभा के मन्त्री चुने गये थे। मई का महीना था। गरमी खूब पड़ने लगी थी। मैदानों में सन्ध्या समय तक लू चला करती थी। घर में बैठना नितान्त दुरूह था। रात के आठ बजे प्रेमशंकर राय साहब के निवास स्थान पर पहुँचे। राय साहब ने तुरन्त उन्हें अन्दर बुलाया। वह इस समय अपने दीवनखाने के पीछे की ओर एक छोटी सी कोठरी मे बैठे हुए थे। ताक पर एक धुंधला सा दीपक जल रहा था। गर्मी इतनी थी कि जान पड़ता की अग्निकुंड है। पर इस आग की भट्टी में राय साहब एक मोटा ऊनी कम्बल ओढ़े हुए थे। उनके मुख पर विलक्षण तेज था और नेत्रों से दिव्य प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा था। प्रतिभा और सौम्य की सजीव मूर्ति मालूम होते थे। उनका शारीरिक गठन और दीर्घकार्य किसी पहलवान को भी लज्जित कर सकता था। उनके गले में एक रुद्राक्ष की माला थी, बगल में एक चाँदी का प्याला और गडुवा रखा हुआ था। तलों के एक ओर दो मोटे ताजे जवान बैठे पंजा लड़ा रहे थे और उसकी दूसरी ओर तीन कोमलांगी रमणियाँ वस्त्राभूषणों से सजी हुई विराज रही थी। इन्द्र का अखाड़ा था, जिसमे इन्द्र, काले देव और अप्सराएँ सभी अपना-अपना पार्ट खेल रहे थे।

प्रेमशंकर को देखते ही राय साहब ने उठ कर बड़े तपाक से उनका स्वागत किया। उनके बैठने को एक कुर्सी मंगायी और बोले, क्षमा कीजिए, मैं इस समय देवोपासना कर रहा हूँ, पर आपसे मिलने के लिए ऐसा उत्कंठित था कि एक क्षण का विलम्ब