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प्रेमाश्रम

सम्बन्धी आविष्कारों का पन्नो द्वारा प्रचार करती है। इस काम के लिए कितने ही निरीक्षक नियुक्त किये है, कृषि के बड़े-बड़े कालेज खोल रखे हैं, पर उनका फल कुछ न निकला। जब वह करोड़ो रुपये व्यय करके कृतकार्यं न हो सकी तो आप दो लाख की पूंजी से क्या कर लेंगे? आपके बनायें हुए यश्न कोई सेंत भी न लेगा। आपकी रासायनिक खादे पड़ी सड़ेगी। बहुत हुआ, आप पाँच सात सैकड़े मुनाफे दे देगें। इससे क्या होता है। जब हम दो-चार कुएँ खोदवा कर, पटवारी से मिल कर, कर्मचारियों का सत्कार करके आसानी से अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं, तो यह झंझट कौन करे।

प्रेम--मेरा उद्देश्य कोई व्यापार खोलना नहीं है। मैं तो केवल कृषि की उन्नति के लिए घन चाहता हूँ। सम्भव है आगे चल कर लाभ हो, पर अभी तो मुनाफे की कोई आशा नहीं।

राजा---समझ गया, यह केवल पुण्य-कार्य होगा।

प्रेम-जी हाँ, यही मेरा उद्देश्य है। मैंने अपने उन लेखों में और इस निबन्ध में भी यही बात साफ-साफ कह दी हैं।

राजा--तो फिर आपने श्रीगणेश करने में ही भूल की। आपको पहले इस विषय में लाट साहब की सहानुभूति प्राप्त करनी चाहिए थी। तब दो की जगह आपको दस लाख बात की बात में मिल जाते। बिना सरकारी प्रेरणा के यहाँ ऐसे कामों में सफलता नहीं होती। यहाँ आप जितनी संस्थाएँ देख रहे है, उनमें किसी का जन्म स्वाधीन रूप से नहीं। यहाँ की यही प्रथा है। राय साहब यदि आपको हिज़ एक्सेलेन्सी से मिला दे और उनकी आप पर कृपादृष्टि हो जाय तो कल ही रुपये का ढेर लग जाय।

राय-मैं बड़ी खुशी से तैयार हूँ।

प्रेम--इस-संस्था को सरकारी सम्पर्क से अलग रखना चाहता हूँ।

राजा--ऐसी दशा में आप इस एसोसिएशन से सहायता की आशा न रखें। कम से कम मेरी यही विचार है; क्यों राय साहब?

राय--आप का कहना व्यर्थ है।

प्रेम- तो फिर मेरा निबन्ध पढ़ना व्यर्थ है।

राजा--नहीं, व्यर्थ नहीं है। सम्भव है, आप इसके द्वारा आगे चल कर सरकारी सहायता पा सकें। हाँ, राय साहब, प्रधान जी का जुलूस निकालने की तैयारी हो रही है न? वह तीसरे पहर की गाड़ी से आनेवाले है।

प्रेमशकर निराश हो गये। ऐसी सभा में अपना निबन्ध पढ़ना अन्धों के आगे रोना था। वह तीन दिन लखनऊ रहे और एसोसिएशन के अधिवेशन में शरीक होते है किन्तु न तो अपना लेख पढ़ा और न किसी ने उनसे पढ़ने के लिए जोर दिया। वहाँ तो सभी अधिकारियों के सेवा-सत्कार में ऐसे दत्तचित्त थे, मानो बरात आयी हो। बल्कि उनका वहाँ रहना सबको अखरता था। सभी समझते थे कि यह महाशय मन में हमारा तिरस्कार कर रहे है। लोगों को किसी गुप्त रीति से यह भी मालूम हो गया था कि यह स्वराज्यवादी हैं। इस कारण से किसी ने उनसे निबन्ध पढ़ने के लिए ग्रह नहीं