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प्रेमाश्रम

किया, यहाँ तक कि गार्डन पार्टी में उन्हें निमन्त्रण भी न दिया। यह रहस्य लोगों पर उनके आने के एक दिन पीछे खुला था; नहीं तो कदाचित् उनके पास लेख पढ़ने का आदेश-पत्र भी न भेजा जाता। प्रेमशंकर ऐसी दशा में वहाँ क्योंकर ठहरते? चौथे दिन घर चले आये। दो-तीन दिन तक उनका चित्त बहुत खिन्न रहा, किन्तु इसलिए नहीं कि उन्हें आशातीत सफलता न हुई, बल्कि इसलिए कि उन्होंने सहायता के लिए रईसों के सामने हाथ फैला कर अपने स्वाभिमान की हत्या की। यद्यपि अकेले पड़े-पड़े उनको जी बहुत उकताता था, पर इसके साथ ही यह अवस्था आत्म-चिन्तन के बहुत अनुकूल थी। निस्वार्थ सेवा करना मेरा कर्तव्य है। प्रयोगशाला स्थापित करके मैं कुछ स्वार्थ भी सिद्ध करना चाहता था। कुछ लाभ होता, कुछ नाम होता। परमात्मा ने उसी का मुझे यह दंड दिया है। सेवा का क्या यही एक साधन हैं? मैं प्रयोगशाला के ही पीछे क्यों पड़ा हुआ हूँ? बिना प्रयोगशाला के भी कृषि-सम्बन्धी विषयों का प्रचार किया जा सकता है। रोग-निवारण क्या सेवा नहीं है? इन प्रश्नों ने प्रेमशंकर के सदुत्साह को उत्तेजित कर दिया। वह प्राय, घर से निकल जाते और आस-पास के देहातों मे जा कर किसानों से खेती-बारी के विषय में वार्तालाप करते। उन्हें अब मालूम हुआ कि यहाँ के किसानों को जितना मूर्ख समझा जाता है, वे उतने मूर्ख नहीं है। उन्हें किसानों से कितनी ही नयी बातों को ज्ञान हुआ। शनै-शनै वह दिन-दिन भर घर से बाहर रहने लगे। कभी-कभी दूर के देहात में चले जाते, दो-दो तीन-तीन दिन तक न लौटते।



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जेठ का महीना था। आकाश से आग बरसती थी। राज्याधिकारी वर्ग पहाड़ी पर ठंडी हवा खा रहे थे। भ्रमण करनेवाले कर्मचारियों के दौरे भी बन्द थे; पर प्रेमशंकर की तातील न थी। उन्हें बहुधा दोपहर का समय पेड़ो की छाँह में काटना पड़ता, कभी दिन का दिन निराहार बीत जाता, पर सेवा की धुन ने उन्हें शारीरिक सुखों से विरक्त कर दिया था। किसी गाँव में हैजा फैलने की खबर मिलती, कहीं कीड़े ऊख के पौधे का सर्वनाश किये डालते थे, कहीं आपस में लठ्यिाव होने का समाचार मिलता। प्रेमशंकर डाकियों की भाँति इन सभी स्थानों पर जा पहुँचते और यथासाध्य कष्ट-निवारण का प्रयास करते। कभी-कभी लखनपुर तक का धावा मारते। जब आषाढ़ में मेह बरसा तो प्रेमशंकर को अपने काम मैं बड़ी असुविधा होने लगी। वह एक विशेष प्रकार के धानों का प्रचार करना चाहते थे। तरकारियों के बोज भी वितरण करने के लिए भेंगा रखें थे। उन्हें बोने और उपजाने की विधि बतलानी भी जरूरी थी। इसीलिए उन्होंने शहर से चार पाँच मील पर वरणा किनारे हाजीगंज में रहने का निश्चय किया। गाँव से बाहर फूल का एक झोपड़ा पड़ गया। दो-तीन खाटे आ गयी। गाँववालों की उन पर असीम भक्ति थी। उनके निवास को लोगों ने अहोभाग्य समझा। उन्हें सब लोग अपना रक्षक, अपना इष्टदेव समझते थे और उनके इशारे पर जान देने को तैयार रहते थे।

यद्यपि प्रेमशंकर को यहाँ वही शान्ति मिलती थी, पर श्रद्धा की याद कभी-कभी