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प्रेमाश्रम

विकल कर देती थी। वह सोचते, यदि वह भी मेरे साथ होती तो कितने आनन्द से जीवन व्यतीत होता। उन्हें यह ज्ञात हो गया था कि ज्ञानशकर ने ही मेरे विरुद्ध उसके कान भरे है, अतएव उन्हें अब उस पर क्रोध के बदले दया आती थी। उन्हें एक बार उससे मिलने और उसके मनोगत भादौ के जानने की बड़ी आकांक्षा होती थी। कई बार इरादा किया कि उसे एक पत्र लिखें पर यह सोच कर कि जवाब दे या न दे, टाले जाते थे। इस चिन्ता के अतिरिक्त अब धनाभाव से भी कष्ट होता था। अमेरिका से जितने रुपये लाये थे, वह इन चार महीनो में खर्च हो गये थे और यहाँ नित्य ही रुपयों का काम लगा रहता था। किसानों से अपनी कठिनाइयाँ बयान करते हुए इन्हें संकोच होता था। वह अपने भोजनादि का बोझ भी उन पर डालना पसन्द न करते थे और न शहर के किसी रईस से ही सहायता माँगने का साहस होता था। अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि ज्ञानशंकर से अपने हिस्से का मुनाफा माँगना चाहिए। उन्हें मेरे हिस्से की पूरी रकम उड़ा जाने का क्या अधिकार है। श्रद्धा के भरण-पोषण के लिए वह अधिक से अधिक मेरा आधा हिस्सा ले सकते है। तब भी मुझे एक हजार के लगभग मिल जायँगै। इस वक्त काम चलेगा, फिर देखा जायगा। निस्सन्देह इस आमदनी पर मेरा कोई हक नहीं हैं, मैंने उसका अर्जन नहीं किया, लेकिन मैं उसे अपने भोग-विलास के निमित्त तो नहीं चाहता, उसे लेकर परमार्थ मै खर्च करना आपत्तिजनक नहीं हो सकता। पहले प्रेमशंकर की निगाह इस तरफ कभी नही गयी थी, वह इन रुपयों को ग्रहण करना अनुचित समझते थे। पर अभाव बहुधा सिद्धान्तों और धारणाओं का वाचक है। सोचा था कि पत्र में सब कुछ साफ-साफ लिख दूंगा, पर लिखने बैठे तो केवल इतना लिखा कि मुझे रुपयों की बड़ी जरूरत है। आशा है, मेरी कुछ सहायता करेंगे। भावों को लेखबद्ध करने में हम बहुत विचारशील हो जाते हैं।

ज्ञानशंकर को यह पत्र मिला तो जामे से बाहर हो गये। श्रद्धा को सुना करे बोले, यह तो नहीं होता कि कोई उद्यम करे, बैठे-बैठे सुकीर्ति का आनन्द उठाना चाहते हैं। जानते होंगे कि यहाँ रुपये बरस रहे हैं। बस बिना हरे-फिटकरी के मुनाफा हाथ आ जाता है। और यहाँ अदालत के खर्च के मारे कचूमर निकला जाता है। एक हजार रुपये कर्ज ले कर खर्च कर चुका और अभी पूरा साल पड़ा है। एक बार हिसाब-किताब देख लें तो आँखें खुल जायें; मालूम हो जाय कि जमींदारी परोसा हुआ थाल नहीं है। सैकड़ो रुपये साल कर्मचारियों की नजर-नियाज में उड़ जाते हैं।

यह कहते हुए उसी गुस्से में पत्र का उत्तर लिखने नीचे गये। उन्हें अपनी अवस्था और दुर्भाग्य पर क्रोध आ रहा था। राय कमलानन्द की चेतावनी बार-बार याद आती थी। वहीं हुआ, जो उन्होंने कहा था।

संध्या हो गयी थी। आकाश पर काली घटा छायी हुई थीं। प्रेमशंकर सोच रहे। ये, बड़ी देर हुई, अभी तक आदमी जवाब ले कर नहीं लौटा। कहीं पानी न बरसने लगे, नही तो इस वक्त पर आ भी न सकेगा। देखें क्या जवाब देते हैं। सूखा जवाब तो क्या देंगे, हाँ, मन में अवश्य झुंझलाययेंगे। अब मुझे भी निस्संकोच हो कर लोगों से सहायता