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प्रेमाश्रम

थाहने के लिए कोई लकड़ी भी न ले सके थे। जी चाहता था कि गाँव मे उड़ कर जा पहुंचे और लोगों की यथासाध्य मदद करूँ, लेकिन यहाँ एक-एक पग रखना दुस्तर था। चारों तरफ घना अँधेरा, ऊपर मूसलाधार वर्षां, नीचे वेगवती लहरों का सामना, राह-बाट का कही पता नहीं। केवल मशालो को देखते चले जाते थे। कई बार घरों के गिरने की धमाका सुनायी दिया। गाँव के निकट पहुँचे तो हाहाकार मचा हुआ था। गांव के समस्त प्राणी, युवा, वृद्ध, बाल मन्दिर के चबूतरे पर रवई यह विध्वंसकारी मेघलीला देख रहे थे। प्रेमशंकर को देखते ही लोग चारों और से आ कर खड़े हो गये। स्त्रियाँ रोने लगी।

प्रेमशंकर- बाढ़ क्या अब की ही आयी है या और भी कभी आयी थी?

भवानीसिंह---हर दूसरे-तीसरे साल आ जाती है। कभी-कभी तो साल में दो-दो बेर आ जाती है।

प्रेमशंकर-इसके रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया?

भवानीसिंह-—इसका एक ही उपाय है। नदी के किनारे बाँध बना दिया जाय। लेकिन कम से कम तीन हजार का खर्च है, वह हमारे किये नहीं हो सकता। इतनी सामर्थ्य ही नहीं। कभी बाढ़ आती हैं, कभी सूखा पड़ता है। धन कहाँ से आयें?

प्रेमशंकर-जमींदार से इस विषय में तुम लोगों ने कुछ नहीं कहा?

भवानी- उनके कभी दर्शन ही नहीं होते; किससे कहें? सेठ जी ने यह गाँव उन्हें पिंडदान में दे दिया था। बस, आप तो गया जी में बैठे रहते हैं। साल में दो बार उनका मुन्शी आ कर लगान वसूल कर ले जाता है। उससे कहो तो कहता है, हम कुछ नहीं जानते पड़ा जी जानें। हमारे सिर पर चाहे जो पड़े, उन्हें अपने नफे से काम है।

प्रेमशंकर अच्छा इस वक्त क्या उपाय करना चाहिए? कुछ बची या सब डूब गया?

भवानी-अँधेरे में सब कुछ सूझ तो नहीं पड़ता, लेकिन अटकल से जान पड़ता है कि घर एक भी नहीं बचा। कपड़े-लत्ते, बर्तन-भाई, खाट-खटोले सब बह गये। इतनी मुहलत ही नहीं मिली कि अपने साथ कुछ लाते। जैसे बैठे थे वैसे ही उठ कर भागे। ऐसी बाढ़ कभी नहीं आयी थी, जैसे आँधी आ जाय, बल्कि आँधीं का हाल भी कुछ पहले मालूम हो जाता है, यहाँ तो कुछ पता ही न चला।

प्रेमशंकर मवेशी भी बह गये होंगे?

भवानी--राम जाने, कुछ तुड़ा कर भागे होगे, कुछ बह गये होगे, कुछ बदन तक पानी में खड़े होंगे। पानी दस-पाँच अगुल और चढा तो उनका भी पता न लगेगा।

प्रेमशंकर-कम से कम उनकी रक्षा तो करनी चाहिए।

भवानी--हमे तो असाध्य जान पड़ता है।

प्रेमशंकर-नहीं, हिम्मत न हारो। भला कुल कितने मर्द यहाँ होंगे?

भवानी--(आँखो से गिन कर) यही कोई चालीस-पचास।

प्रेम---तो पाँच-पाँच आदमियों की एक-एक टुकड़ी बना लो और सारे गाँव का