पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/१२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३१
प्रेमाश्रम


प्रेम---इसका मैं बचन दे सकता हूँ। यहाँ साठ-सत्तर बीधे का अच्छा चक निकल आयेगा ।

भवानी-तब हम आपका झोपड़ा भी यही बना देंगे। वह जगह ऊँची है, लेकिन कभी-कभी वहाँ भी बाढ़ आ जाती है।

प्रेम- तो आज ही भागे हुए लोगों को सूचना दे दो और पड़ोस के गाँवो मे भी खबर भेज दो।



१८

गायत्री उन महिलाओं ने थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्र के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंधी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़को के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यानों पर मोहित थी तो देहातियों के बेसुरे अलाप का आनन्द भी उठा सकती थी। सरस साहित्य पर मुग्ध होती थी तो खसरा और खतौनी से भी जी न चुराती थी। लखनऊ से आये हुए उसे दो साल हो गये। लेकिन एक दिन भी अपने विशाल भवन में आराम से न बैठी। कभी इस गाँव जाती, कभी उस छावनी में ठहरती, कभी तहसील आना पड़ता, कभी सदर जाना पड़ता, बार-बार अधिकारियों से मिलने की जरूरत पड़ती। उसे अनुभव हो रहा था कि दूसरों पर शासन करने के लिए स्वयं झुकना पड़ता है। उसके इलाके मे सर्वत्र लूट मची हुई थी, कारिन्दे आसामियों को नोचे खाते थे। सोचती, क्या इन सब मुख्तारों और कारिन्दो को जवाब दे दें? मगर काम कौन करेगा? और यही क्या मालूम है कि इनकी जगह जो नये लोग आयेंगे, वे इनसे ज्यादा नेकनीयत होगें? मुश्किल तो यह है कि प्रजा को इस अत्याचार से उतना कष्ट भी नहीं होता, जितना मुझे होता है। कोई शिकायत नहीं करता, कोई फरियाद नहीं करता, उन्हे अन्याय सहने का ऐसा अभ्यास हो गया है कि वह इसे भी जीवन की एक साधारण दशा समझते हैं। उससे मुक्त होने का कोई यत्न भी हो सकता है इसका उन्हें ध्यान भी नहीं होता।

इतना ही नहीं था। प्रजा गायत्री की सच्चेष्टाओं को सन्देह की दृष्टि से देखती थी। उनको विश्वास ही न होता था कि उनकी भलाई के लिए कोई जमींदार अपने नौकरों को दंड दे सकता है। वर्तमान अन्याय उनको ज्ञात विषय था, इसका उन्हें भय न था। सुधार के मन्तव्यों से भयभीत होते थे, यह उनके लिए अज्ञात विषय था। उन्हें शंका होती थी कि कदाचित् यह लोगों को निचोड़ने की कोई नयी विधि है। अनुभव मी इस शंका को पुष्ट करता था। गायत्री का हुक्म था कि किसानों को नाम-मात्र सूद पर रुपये उधार दिये जायें, लेकिन कारिन्दे महाजनों से भी ज्यादा सूद लेते थे। उसने ताकीद कर दी थी कि बखारो से असामियों को अष्टाश पर अनाज दिया जाय। लेकिन वहाँ अष्टाश न दे कर लोग दूसरों से सवाई-डेवढ़े पर अनाज लाते थे। वह अपने इलाके भर में सफाई का प्रबंध भी करना चाहती थी। गोबर बटोरने के लिए गाँव से बाहर