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प्रेमाश्रम

चैन करती।

लेखराज-(हँस कर) कानूनगो साहब आप सुनते है सरकार की बातें। ऐसी चुन कर कह देती है कि उसका जवाब ही न बन पड़े। सरकार को परमात्मा ने रानी बनाया है, हम तो सरकार के द्वार के भिक्षुक है। सरकार ने धर्मशाला के शिलारोपण का शुभ मुहुर्त पूछा था वह मैने विचार लिया है। इसी पक्ष की एकादशी को प्रात काल सरकार के हाथ से नींव पड़ जानी चाहिए।

गायत्री—यह सुकीत मेरे भाग मे नही लिखी है। आपने किसी रईस को अपने हाथों सार्वजनिक इमारतों का आधार रखते देखा है? लोग अपने रहने के मकानों की नींव अधिकारियों से रखवाते है। मैं इस प्रथा को क्योंकर तोड़ सकती हैं? जिलाघीश को शिलारोपण के लिए निमत्रित करूंगी। उन्हीं के नाम पर धर्मशाला का नामकरण होगा। किसी ठीकेदार से भी अपने बातचीत की।

लेखराज- जी हाँ, मैंने एक ठीकेदार ठीक कर लिया है। सज्जन पुरुष हैं। इस शुभ कार्य को बिन लाभ के करना चाहता है। केवल लागत-मात्र लेगा।

गायत्री--आपने उसे नकशा दिखा दिया है न? कितने पर इस काम का ठीका लेना चाहता है?

लेखराज-—वह कहता है, दूसरा ठीकेदार जितना माँगे उससे मुझे सौ रुपये कम दिये जायें।

गायत्री तो अब एक दूसरा ठीकेदार लगाना पड़ा। वह कितना तखमीना करता है?

लेखराज-उसके हिसाब से ६० हजार पड़ेगे। माल-मसाला अब अव्वल दर्जे का लगायेगा। ६ महीने में काम पूरा कर देगा।

गायत्री ने इस मकान का नकशी लखनऊ में बनवाया था। वहाँ इसका तखमीना ४० हजार किया गया था। व्यग-भाव से बोली, तब तो वास्तव में आपका ठीकेदार बड़ा सज्जन पुरुष है। इसमें कुछ न कुछ तो आपके ठाकुर जी पर जरूर ही चढ़ाये जायेंगे।

लेखराज---सरकार तो दिल्लगी करती है। मुझे सरकार से दो ही क्या कम मिलता है कि ठीकेदार से कमीशन ठहराता? कुछ इच्छा होगी तो माँग लूंगा, नीयत क्याें बिगाड़े।

गायत्री मैं इसका जवाब एक सप्ताह में देंगी।

कानूनगो----और मुझे क्या हुक्म होता है? पंडित जी, आपने भी तो देखा होगा, सारन और जगराँव में हुजूर की कितनी जमीन दब गयी है।

पंडित—जी हाँ, क्यों नहीं, सौ बीघे से कम न दबी होगी।

गायत्री में जमीन देख कर आपको इत्तला दूँगी।अगर आपस के समझौते से काम चल जाय तो रार बढ़ाने की जरूरत नहीं।

दोनों महानुभाव निराश हो कर विदा हुए। दोनों मन ही मन गायत्री को कोस रहे थे। कानूनगो ने कहा, चालाक औरत हैं, बड़ी मुश्किल से हत्थे पर चढ़ती है।