पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/१३१

विकिस्रोत से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३६
प्रेमाश्रम

धियों के विज्ञापनों की थी। गायत्री ने उन्हें उठा कर रद्दी की टोकरी मे डाल दिया। एक पत्र राय कमलानन्द का था। इसे उसने उत्सुकता से खोला और पढ़ते ही उसकी आँखें आनन्दपूर्ण गर्व से चमक उठी, मुखमंडल नव पुष्प के समान खिल गया। उसने तुरन्त वह पैकेट खोला जिसे वह अब तक किसी औषधालयं का सूचीपत्र समझ रही थी। पूर्वं पृष्ठ खोलते ही उसे अपनी चित्र दिखाई दिया। पहले लेख का शीर्षक था गायत्री देवी। लेखक का नाम था ज्ञानशंकर बी० ए०। गायत्री अंगरेजी कम जानती थी, लेकिन स्वाभाविक बुद्धिमत्ता से वह साधारण पुस्तकों का आशय समझ लेती थी। उसने बड़ी उत्सुकता से लेख को पढ़ना शुरू किया और यद्यपि बीस पृष्ठाें से कम न थे, पर उसने आध घंटे में ही सारा लेख समाप्त कर दिया और कुछ गौरवोन्मत्त नैत्रों से इधर उधर देख कर एक लम्बी सांस ली। ऐसा आनन्दाेन्माद उसे अपने जीवन में शायद ही प्राप्त हुआ हो। उसका मान-प्रेम कभी इतना उल्लसित न हुआ था। ज्ञानशंकर ने गायत्री के चरित्र, उसके सद्गुणों और सत्कार्यों की इतनी कुशलता से उल्लेख किया था कि भक्ति की जगह लेख में ऐतिहासिक गंम्भीरता का रंग आ गया था। इसमे सन्देह नहीं कि एक-एक शब्द से श्रद्धा टपकती थी, किन्तु वाचक को यह विवेक-हीन प्रशंसा नहीं, ऐतिहासिक उदारता प्रतीत होती थी। इस शैली पर वाक्य नैपुण्य सोने में सुगन्ध हो गया था। गायत्री बार-बार आईने में अपना स्वरूप देखती थी, उसके हृदय में एक असीम उत्साह प्रवाहित हो रहा था, मानों वह विमान पर बैठी हुई स्वर्ग की जा रही हो। उसकी धमनियों में रक्त की जगह उच्च भावी का संचार होता हुआ जान पड़ता था। इस समय उसके द्वार पर भिक्षुओं की एक सेना भी होती तो निहाल हो जाती। कानूनगो साहब अगर आ जाते तो पाँच सौ के बदले पाँच हजार से भागते और पंडित लेखराज का तखमीना दूना भी होता हो तो स्वीकार कर लिया जाता। उसने कई दिन से यहाँ के कारिन्दे से बात न की थी, उससे रूठी हुई थी। इस समय उसे अपराधियों की भाँति खड़े देखा तो प्रसन्न मुख हो कर बोली, अहिए, मुन्शी जी आजकल तो कच्चे बड़े की खूब छनती होगी।

मुन्शी जी धीरे धीरे सामने आ कर बोले, हुजूर, जनेऊ की सौगन्ध है, जब से सरकार ने मना कर दिया मैंने उसकी सूरत तक न देखी।

यह कहते हुए उन्होंने अपने साहित्य-प्रेम का परिचय देने के लिए पत्रिका उठा ली और पन्ने उलटने लगे। अकस्मात् गायत्री का चित्र देख कर उछल पड़े। बोले, सरकार, यह तो आपकी तस्वीर है। कैसा बनाया है कि अब बोली, अब बोली। क्या कुछ सरकार का हाल भी लिखा है?

गायत्री ने बैपरवाही से कहा, हाँ, तस्वीर है तो हाल क्यों न होगा? कारिन्दी दौड़ा हुआ बाहर गया और यह खबर सुनायी। कई कारिन्दे और चपरासी भोजन बना रहे थे, ओई भंग पीस रहा था, कोई गा रही थी। सब के सब आकर तस्वीर पर टूट पढ़े। छीना-झपटी होने लगी, पत्रिका के कई पन्ने फूट गये। यो गायत्री किसी को अपनी किताबें छूने नहीं देती थी, पर इस समय जर भी न बोली।