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प्रेमाश्रम

एक मुँहलगे चपरासी ने कहा, सरकार, कुछ हम लोगों को भी सुना दें।

गायत्री--यह मुझसे न होगा। सारा पोथा भरा हुआ है, कहाँ तक सुनाऊँगी ? दो-चार दिन में इसका अनुवाद हिन्दी पत्र में छप जायगा, तब पढ लेना।

लेकिन जब आदमियो ने एक स्वर होकर आग्रह करना शुरू किया तो गायत्री विवश हो गयी। इधर-उधर से कुछ अनुवाद करके सुनाया । यदि उसे अँगरेजी की अच्छी योग्यता होती तो कदाचित् वह अक्षरशः सुनाती ।

एक कारिन्दे ने कहा, पत्रवालो को न जाने यह सब हाल कैसे मिल जाते हैं ।!

दूसरे कारिन्दे ने कहा, उनके गोइन्दे सब जगह बिचरते रहते हैं । कही कोई बात हो, चट उनके पास पहुँच जाती है।

गायत्री को इन वार्ताओ मे असीम आनन्द आ रहा था। प्रातःकाल उसने ज्ञानशकर को एक विनयपूर्ण पत्र लिखा । इस लेख की चर्चा न करके केवल अपनी विडम्वनाओ का वृत्तान्त लिखा और साग्रह निवेदन किया कि आप आ कर मेरे इलाके का प्रबन्ध अपने हाथ में ले, इस डूबती हुई नौका को पार लगाये । उसका मनोमालिन्य मिट गया था । खुशामद अभिमान का सिर नीचा कर देती है। गायत्री अभिमान की पुतली थी। ज्ञानशकर ने अपने श्रद्धाभाव से उसे वशीभूत कर लिया।



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ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिली तो फूले न समाये । हृदय मे भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी । उनका मधुर स्वप्न इतनी जल्दी फलीभूत होगा इसकी उन्हें आशा न थी। विधाता ने एक बडी रियासत के स्वामी बनने का अवसर प्रदान कर दिया था। यदि अब भी वह इससे लाभ न उठा सके तो उनका दुर्भाग्य ।

किन्तु गोरखपुर जाने के पहले लखनपुर की ओर से निश्चिन्त हो जाना चाहते. थे। जब से प्रेमशकर ने उनसे अपने हिस्से का नफा माँगा था उनके मन में नाना प्रकार की शकाएँ उठ रही थी। लाला प्रभाशंकर का वहाँ आना-जाना और भी खटकता था। उन्हें सदेह होता था कि वह बुड्ढा घाघ अवश्य कोई न कोई दाँव खेल रहा है। यह पितृवत् प्रेम अकारण नही । प्रेमशकर चतुर हो, लेकिन इस चाणक्य के सामने अभी लौंडे है। इनकी कुटिल कामना यही होगी कि उन्हें फोड कर लखनपुर के आठ आने अपने लडको के नाम हिब्बा करा ले या किसी दूसरे महाजन के यहाँ बय कराके बीच मे दस-पाँच हजार की रकम उडा लें। जरूर यही बात है, नही तो जब अपनी ही रोटियो के लाले पड़े हैं तो यह पकवान बन-बन कर न जाते। अब तो श्रद्धा ही मेरी हारी हुई बाजी का फर्जी है। अब उसे यह पढाऊँ कि तुम अपने गुजारे के लिए आधा लखनपुर अपने नाम करा लो । उनकी कौन चलाये; अकेले हैं ही, न जाने कब कहाँ चल दें तो तुम कही की न रही। यह चाल सीधी पड जाय तो अब भी लखन-