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प्रेमाश्रम

पुर अपना हो सकता है। श्रद्वा को तीर्थयात्रा करने के लिए भेज दूँगा । एक ने एक दिन भर हो जायेगी । जीती भी रही तो हरद्वार में बैठी गगा स्नान करती रहेगी। लखनपुर की ओर से मुझे कोई चिन्ता न रहेगी ।

बौ निश्चय करके ज्ञानशंकर अन्दर गये; दैवयोग से श्रद्धा उनकी इच्छानुसार अपने कमरे में अकेली बैठी हुई मिल गयी। माया को कई दिन से ज्वर आ रहा था, विद्या अपने कमरे में बैठी हुई उसे पंखा झल रही थी।

ज्ञानशंकर चारपाई पर बैठ कर श्रद्धा से बोले, देखी चचा साहब की घूतँत ! वह तो मैं पहले ही ताड़ गया था कि यह महाशय कोई न कोई स्वाँग रच रहे हैं। सुना लखनपुर के वय करने की बात-चीत हो रही है।

श्रद्धा--(विस्मित हो कर) तुमसे किसने कहा ? चचा साहब को मैं इतना नीच नही समझती। मुझे पूरा विश्वास है कि वह केवल प्रेमवश वहाँ आते-जाते हैं।

ज्ञान--यह तुम्हारा भ्रम है। यह लोग ऐसे निस्वार्थ प्रेम करनेवाले जीव नहीं है। जिसने जीवन-पर्यन्त दूसरों को ही मूँडा हो वह अब अपना गँवा कर भला क्या प्रेम करेगा ? मतलब कुछ और ही हैं। भैया का माल है, चाहे बेचें या रखें, चाहे चचा साहब को दे दें या लुटा दें, इसका उन्हें पूरा अधिकार हैं, मैं बीच में कूदनेवाला कौन होना हूँ ? हाँ इतना अवश्य है कि तुम फिर कही की न रहोगी।

श्रद्धा--अगर तुम्हारा ही कहना ठीक हो तो मेरा इसमे क्या बस है?

ज्ञान--बस क्यों नही है? आखिर तुम्हारे गुजारे का भार तो उन्ही पर है। तुम आठ आने लखनपुर अपने नाम लिखा सकती हो। भैया को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। तुम्हें संकोच हो तो मैं स्वयं जा कर उनसे मामला तें कर सकता हूँ। मुझे विश्वास है कि भैया इन्कार न करेंगे और करे तो भी मैं उन्हें कायल कर सकता है। जब तुम्हारे नाम हो जायगा तब उन्हे वय करने का अधिकार ने रहेगा और चचा साहब की दाल भी न गलेगी।

श्रद्धा विचार में डूब गयी। जब उसने कई मिनट तक सिर ने उठाया तब ज्ञानशकर ने पूछा, क्या मोचती हो? इनमें कोई हर्ज है? जायदाद नष्ट हो जाय, वह अच्छा है या घर में बनी है, वह अच्छा है?

अब श्रद्धा ने सिर उठाया और गौरव-पूर्ण भाव से बोली--मैं ऐसा नही कर सकती। उनकी जो इच्छा हो वह करे, चाहे अपना हिस्सा बेच दें या रखें। वह स्वय बुद्धिमान हैं, जो उचित समझेंगे वह करेंगे। मैं उनके पाँव मे वेडी क्यो डालूँ !

ज्ञानशंकर ने रुष्ट हो कर उत्तर दिया, लेकिन यह सोचा है कि जायदाद निकल गयी तो तुम्हारा निर्वाह क्यो कर होगा? वह कल ही फिर अमेरिका की राह लें तो?

श्रद्धा--मेरी कुछ चिन्ता न करो! वह मेरे स्वामी हैं, जो कुछ करेंगे उसी में मेरी भलाई हैं। मुझे विश्वास ही नहीं होता कि वह मुझे निरवलम्ब छोड़ जायेंगे।

ज्ञान--तुम्हारी जैसी इच्छा। मैंने ऊँच-नीच मुझा दिया; अगर पीछे से कोई बात बने-बिगडे़ तो मेरे सिर दोष न रखना।