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प्रेमाश्रम


ज्ञानशंकर बाहर आये, उनका चित्त उद्विग्न हो रहा था। श्रद्धा के सन्तोष और पतिभक्ति ने उन्हें एक नयी उलझन में डाल दिया। यह तो उन्हें मालूम था कि श्रद्धा मेरे प्रस्ताव को सुगमता से स्वीकार न करेगी, लेकिन उसमें इतना दृढ़ त्याग-भाव है। इसका उन्हें पता न था। अपने मानव-प्रकृति ज्ञान पर उन्हें घमंड था, श्रद्धा के त्याग भाव ने उसे चूर कर दिया। ओह। स्त्रियाँ कितनी अविवेकिनी होती हैं। मैंने महीनों इसे तोते की भाँति पढ़ाया, उसका यह फल! वह अपने कमरे में देर तक बैठे सोचते रहे कि क्योंकर यह गुत्थी सुलझे? वह आज ही इस दुविधा का अन्त करना चाहते थे। यदि वह श्रद्धा को भार मुझ पर छोड़ना चाहते हैं, तो उन्हें लखनपुर उसके नाम लिखना पड़ेगा। मैं उन्हें मजबूर करूंगा। खूब खुली-खुली बातें होगी। इसी असमंजस में वह घर से निकले और हाजीपुर की ओर चले। रास्ते भर वह इसी चिन्ता में पड़े रहे। यह संकोच भी होता था कि इतने दिनों के बाद मिलने भी चला तो स्वार्थ-वश हो कर। जब से प्रेमशकर हाजीपुर रहने लग गये थे, ज्ञानबाबू ने एक बार भी वहाँ जाने का कष्ट न उठाया था। 'कभी-कभी अपने घर पर ही उनसे मुलाकात हो जाती थी। मगर इधर तीन-चार महीनों से दोनों भाइयों से भेट ही न हुई थी।

ज्ञानशंकर हाजीपुर पहुंचे, तो शाम हो गयी थी। पूस का महीना था। खेतों मे चारों ओर हरियाली छायी हुई थी। सरसों, मटर, कुसुम, अल्सी के नीले-पीले फूल अपनी छटा दिखा रहे थे। कही चंचल तोतों के झुंड थे, कहीं उचक्के कौवे के गोल। जगह-जगह पर सारस के जोड़े अहिंसापूर्ण विचार में मग्न खड़े थे। युवतियाँ सिरों पर घड़े रखें नदी से पानी ला रही थी, कोई खेत में बथुआ का साग तोड़ रही थी, कोई बैलों को खिलाने के लिए हरियाली का गट्ठा सिर पर रखे चली आती थी। सरल शान्तिमय जीवन का पवित्र दृश्य था। शहर की चिल्ल-पो, दौड़ धूप के सामने यह शान्ति अतीव सुखद प्रतीत होती थी।

ज्ञानशंकर एक आदमीके साथ प्रेमशंकर के झोपड़े में आये तो वहाँ की सुरम्य शोभा देख कर चकित हो गये। नदी के किनारे एक ऊँचे और विस्तृत टीले पर लता और वेलो से सजा हुआ ऐसा जान पड़ता था, मानों किसी उच्चात्मा का सन्तोषपूर्ण हृदय है। झोपड़े के सामने जहाँ तक निगाह जाती थी, प्रकृति की पुष्पित और पल्लवित छटा दिखायी देती थी। प्रेमशंकर झोपड़े के सामने खड़े बैलों को चारा डाल रहे। ज्ञानशंकर को थे। देखते ही बड़े प्रेम से गले मिले और घर का कुशल-समाचार पूछने के बाद बोले, तुम तो जैसे मुझे भूल ही गये। इधर आने की कसम खा ली।

ज्ञानशंकर ने लज्जित हो कर कहा, यहाँ आने का विचार ता कई दिन से था, पर अवकाश ही नहीं मिलता था। इसे अपने दुर्भाग्य के सिवा और क्या कहूं? आप मुझसे इतने समीप हैं, फिर भी हमारे बीच में सौ कोस का अन्तर है। यह मैरी नैति दुर्बलता और विरादरी का लिहाज है। मुझे बिरादरी के हाथों जितने कष्ट झेलने पड़े, वह मैं ही जानता हूँ। यह स्थान तो बड़ा रमणीक है। यह खेत किसके है?

प्रेमशंकर--इसी गाँव के असामियों के है। तुम्हें तो मालूम होगा, सावन में यहाँ