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प्रेमाश्रम

बाढ़ आ गयी थी। सारा गाँव डूब गया था, कितने ही बैल बह गये, यहाँ तक कि झोंपड़ों का भी पता न चला। तब से लोगों को सहकारिता की जरूरत मालूम होने लगी है। सब असामियों ने मिल कर यह बाँध बना लिया है और यह साठ-बीधे का चक निकल आया। इसके चारों ओर ऊँची मेड़े खीच दी है। जिसके जितने बीधे खेत हैं, उसी परते से बाँट दी जायेगी। मुझे लोगो ने प्रबन्धक बना रखा है। इस ढ़ंग से काम करने से बड़ी किफायत होती है। जो काम दस मजूर करते थे वही काम छह सात मजदूरों से पूरा हो जाता है। जुताई और सिंचाई भी उत्तम रीति से हो सकती है। तुमने गायत्री देवी का वृत्तान्त खूब लिखा है, मैं पढ़ कर मुग्ध हो गया।

ज्ञानशंकर उन्होंने मुझे अपनी रियासत का प्रबन्ध करने को बुलाया है। मेरे लिए यह बड़ा अच्छा अवसर हैं। लेकिन जाऊँ कैसे? माया और उनकी माँ को तो साथ ले जा सकता हैं। किन्तु भाभी किसी तरह जाने पर राजी नहीं हो सकती। शिकायत नहीं करता, लेकिन चाची से आजकल उनको बड़ा मेल जोल है। चाची और उनकी बहू दोनों ही उनके कान भरती हैं। उनका सरल स्वभाव है। दूसरों की बातो में आ जाती हैं। आजकल दोनों महिलाएँ उन्हें दम दे रही है कि लखनपुर का आधा हिस्सा अपने नाम कर लो। कौन जाने, तुम्हारे पति फिर विदेश की राह ले तो तुम कही की, न रहो। बचा साहब भी उसी गोष्ठी में हैं। आज ही कल मे वह लोग यह प्रस्ताव आपके सामने लायेंगे। इसलिए आप से मेरी विनीत प्रार्थना है कि इस विषय मे आप जो करना चाहते हो उससे मुझे सूचित कर दे। आपके ही फैसले पर मेरे जीवन की सारी आशाएँ निर्भर है। यदि आपने अपने हिस्से को वय करने का निश्चय कर लिया हो, तो मैं अपने लिए कोई और राह निकालें।

प्रेमशंकर--चचा साहब के विषय में तुम्हें जो सदेह है, वह सर्वथा निर्मूल है। उन्होंने आज तक कभी मुझसे तुम्हारी शिकायत नहीं की। उनके हृदय में संतोष है। और चाहे उनकी अवस्था अच्छी न हो, पर वह उससे असन्तुष्ट नहीं जान पड़ते। रहा लखनपुर के सम्बन्ध में मेरा इरादा। मैं यह सुनना ही नहीं चाहता कि मैं उस गाँव का जमींदार हैं। तुम मेरी ओर से निश्चित हो। यही समझ लो कि मैं हैं ही नही। में अपने श्रम की रोटी खाना चाहता हूँ। बीच को दलाल नहीं बनना चाहता। अगर सरकारी पत्रों में मेरा नाम दर्ज हो गया हो तो मैं इस्तीफा देने को तैयार हैं। तुम्हारी भाभी के जीवन-निर्वाह का भार तुम्हारे ऊपर रहेगा। मुझसे भी जो कुछ बन पड़ेगा तुम्हारी सहायता करता रहूंगा।

ज्ञानशंकर भाई की बातें सुन कर विस्मित हो गये। यद्यपि इन विचारों मौलिकता न थी। उन्होंने साम्यवाद के ग्रंथों में इसका विवरण देखा था, लेकिन उनकी समझ में यह केवल मानव-समाज को आदर्श-मात्र था। इस आदर्श को व्यावहारिक रूप में देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ। वह अगर इस विषय पर तर्क करना चाहते तो अपनी सबल युक्तियों से प्रेमशंकर को निरुत्तर कर देते। लेकिन यह समय इन विचारों के समर्थन करने का था, न कि अपनी वाक्पटुता दिखाने का। बोले, भाई साहब! यह