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प्रेमाश्रम

समाज-संगठन को महान् आदर्श है, और मुझे गर्व है कि आप केवल विचार से नहीं, व्यवहार से भी उसके भक्त है। अमेरिका की स्वतंत्र भूमि में इन भावों का जाग्नत होना स्वाभाविक है। यहाँ तो घर से बाहर निकलने की नौबत ही नहीं आयी। आत्मबल और बुद्धि-सामर्थ्य से भी वंचित हूँ। मेरे संकल्प इतने पवित्र और उत्कृष्ट क्योंकर हो सकते हैं। मैरी संकीर्ण दृष्टि में तो यही जमींदारी, जिसे आप (मुस्करा कर) बीच की दलाली समझते है, जीवन का सर्वश्रेष्ठ रूप हैं। हाँ, सम्भव है आगे चल कर आपके सत्संग से मुझमे भी सद्विचार उत्पन्न हो जायें।

प्रेम-तुम अपने ही मन में विचार करो। यह कहां का न्याय है कि मिहनत तो कोई करे, उसकी रक्षा का भार किसी दूसरे पर हो, और रुपये उगाहे हम?

ज्ञान--बात तो यथार्थ है, लेकिन परम्परा से यह परिपाटी ऐसी चली आती हैं। इसमें किसी प्रकार का संशोधन करने का ध्यान ही नहीं होता।

प्रेम-तो तुम्हारा गोरखपुर जाने का कब तक इरादा है।

ज्ञान-पहले आप मुझे इसका पूरा विश्वास दिला दें कि लखनपुर के सम्बन्ध में आपने जो कहा हैं वह निश्चयात्मक है।

प्रेम--उसे तुम अटल समझो। मैंने तुमसे एक बार अपने हिस्से का मुनाफा माँगा था। उस समय मेरे विचार इतने पक्के न थे। मेरा हाथ भी तंग था। उस पर मैं बहुत लज्जित हूँ। ईश्वर ने चाहा तो अब तुम मुझे इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ पाओगें।

ज्ञान-तो मैं होली तक गोरखपुर चला जाऊँगा। कोई हर्ज न हो तो आप भी घर चले। माया आपको बहुत पूछा करता है।

प्रेम---आज तो अवकाश नहीं, फिर कभी आऊँगा।

ज्ञानशंकर यहाँ से चले तो उनका चित्त बहुत प्रसन्न था। बहुत दिनों के बाद मेरे मन की अभिलाषा पूरी हुई। अब में पूरे लखनपुर का स्वामी हैं। यह अब कोई मेरा हाथ पकड़नेवाला नहीं। जो चाहूँ निर्विघ्न कर सकता हूँ। भैया वचन के पक्के है, वह अब कदापि दुलख नहीं समाते। वह इस्तीफा लिख दे तो बात और पक्की हो जाती, लेकिन इस पर जोर देने से मेरी क्षुद्रता प्रकट होगी। अभी इतना ही बहुत है, आगे चल कर देखा जायगा।



२०

ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किंतु हमेशा उनके सामने एक न एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना पड़ा। इधर प्रेमशंकर के आ जाने से एक नयी समस्या उपस्थित हो गयी। इतने दिनों के बाद अब उन्हें मनोनीत सुअवसर हाथ लगा। कागज-पत्र पहले से ही तैयार थे। नालिशों के दायर होने में विलम्ब न हुआ।

लखनपुर के लोग मुचलके के कारण बिगड़े हुए थे ही, यह नयी विपत्ति सिर पर