पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४२
प्रेमाश्रम


पड़ी तो और भी झल्ला उठे। मुचलके की मियाद इसी महीने में समाप्त होनेवाली थी। वह स्वच्छन्दता से जवाबदेही कर सकते थे। सारे गाँव में एका हो गया। आग-सी लग गयी। बूढे कादिर खाँ भी, जो अपनी सहिष्णुता के लिए बदनाम थे, धीरता से काम न ले सके। भरी हुई पंचायत मे, जो जमींदार का विरोध करने के उद्देश्य से बैठी थी, बोले, इसी धरती में सब कुछ होता है और सब कुछ इसी में समा जाता है। हम भी इसी धरती से पैदा हुए है और एक दिन इसी में समा जायेंगे। फिर यह चोट क्यों सहे? धरती के ही लिए छत्रधारियों के सिर गिर जाते हैं, हम भी अपना सिर गिरा देगे। इस काम में सहायता करना गाँव के सब प्राणियों का धर्म है, जिससे जो कुछ हो सके दे। सब लोगों ने एक स्वर से कहा, हम सब तुम्हारे साथ हैं, जिस रास्ते कहोगे चलेगे और इस धरती पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देंगे।

निस्सन्देह गाँववालो को मालूम था कि जमींदार को इजाफा करने का पूरा अधिकार है, लेकिन वह यह भी जानते थे कि यह अधिकार उसी दशा में होता है, जब जमींदार अपने प्रयत्न से भूमि की उत्पादक शक्ति बढ़ा है। इस निर्मूल इजाफे को सभी अनर्थ समझते थे।

ज्ञानशंकर ने गाँव मे यह एका देखा तो चौके, लेकिन कुछ तो अपने दबाव और कुछ हाकिम परगना मिस्टर ज्वालासिंह के सहवासी होने के कारण उन्हें अपनी सफलता में विशेष संशय न था। लेकिन जब दाबे की सुनवायी हो चुकने के बाद जवाबदेही शुरू हुई तो ज्ञानशंकर को विदित हुआ कि मैं अपनी सफलता को जितना सुलभ समझता था उससे कहीं अधिक कष्टसाध्य है। ज्वालासिंह कभी-कभी ऐसे प्रश्न कर बैठते और असामियों के प्रति ऐसा दया-भाव प्रकट करते कि उनकी अभिरुचि का साफ पता चल जाता था। दिनों-दिन अवस्था ज्ञानशंकर के विपरीत होती जाती थी। वह स्वयं तो कचहरी न जाते, लेकिन प्रतिदिन का विवरण बड़े ध्यान से सुनते थे। ज्वालासिंह पर दाँत पीस कर रह जाते। ये महापुरुष मेरे सहपाठियों में हैं। हम वह बरषो तक साथ-साथ खेले है। हँसी दिल्लगी, धौल-धप्पा सभी कुछ होता था। आज जो जरा अधिकार मिल गया तो ऐसे तोते की भाँति आँखें फेर ली, मानो कभी का परिचय ही नहीं है।

अन्त में जब उन्होंने देखा कि अब यत्न न किया तो काम बिगड़ जायगा तब उन्होंने एक दिन ज्वालसिंह से मिलने का निश्चय किया। कौन जाने मुझ पर रोब जनाने के ही लिए यह जाल फैला रहे हो। यद्यपि यह जानते थे कि ज्वालसिंह किसी मुकदमे की जाँच की अवधि में वादियों से बहुत कम मिलते थे तथापि स्वार्थपरता की धुन में उन्हें इसका भी ध्यान न रहा। सन्ध्या समय उनके बँगले पर जा पहुँचे।

ज्वालासिंह को इन दिनों सितार का शौक हुआ था। उन्हें अपनी शिक्षा में यह विशेष त्रुटि जान पड़ती थी। एक गत बजाने की बार-बार चेष्टा करते, पर तारों का स्वर न मिलता था। कभी यह कील घुमाते, कभी कील ढीली करते कि ज्ञानशंकर ने कमरे में प्रवेश किया। ज्वालासिंह ने सितार रख दिया और उनसे गले मिल कर