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प्रेमाश्रम

कह दे, मुझे यह सुन कर बड़ा खेद हुआ। आपने पहले इसका जिक्र क्यों नहीं क्यिा? विद्या ने भी कभी इसकी चर्चा नहीं की, नहीं तो अब तक आपकी डिग्री हो गयी होती। किन्तु आप निश्चित रहे। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि अपनी ओर से आपकी सिफ़ारिश करने में कोई बात उठा न रखूंगी।

ज्ञान—मुझे आपसे ऐसी ही आशा थी। दो-चार दिन मे भाई साहब मौका देखने जायेगे। इसलिए उनसे जल्द ही इसकी चर्चा कर दे।

शील—मैं आज जाते ही जाते कहूँगी। आप इतमीनान रखे।



२१

प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था। किन्तु इस मार्ग में एक बड़ी बाधा खड़ी हो गयी थी। कल सन्ध्या समय शीलमणि ने उनसे ज्ञानशंकर के मुकदमे की बात कहीं थी और तभी से वह बड़े असमंजस में पड़े हुए थे। सामने एक जटिल समस्या थी न्याय या प्रणय, कर्तव्य या स्त्री की मान रक्षा। वह सोचते थे, मुझसे बड़ी भूल हुई कि इस मुकदमे को अपने इजलास में रखा। लेकिन मैं यह क्या जानता था कि ज्ञानशंकर यह कूटनीति ग्रहण करेंगे। बड़ा स्वार्थी मनुष्य है। इंसी अभिप्राय से उसने स्त्रियों से मेल-जोल बढाया।.

शीलमणि वह चाले क्या जाने शील में पड़ कर वचन दे आयी। वह यदि उनकी बात नहीं रखता तो वह रो-रो कर जान हीं दे देगी। उसे क्या मालूम कि इस अन्याय से मेरी आत्मा को कितना दुख होगा। अभी तक जितनी गवाहियाँ सामने आयी हैं। उनसे तो यही सिद्ध होता हैं कि ज्ञानशंकर ने आसामियों को दबाने के लिए यह मुकदमा दायर किया है और कदाचित् बात भी यही है। बड़ा ही बना हुआ आदमी है। लेख तो ऐसा लिखता हैं कि मानो दीन-रक्षा के भाव में पड़ा हुआ है किन्तु पक्का मतलबी है। गायत्री की रियायत का मैनेजर हो जायगा तो अन्धेर मचा देगा। नहीं, मुझसे यह अन्याय न हो सकेगा, देख कर मक्खी न निगली जायगी। शीलमणि रूठेगी तो रूठे। उसे स्वयं समझना चाहिए था कि मुझे ऐसा वचन देने का कोई अधिकार नहीं था। लेकिन मुश्किल तो यह है कि वह कैवल रो कर ही मेरा पिंड न छोड़ेगी। बात-बात पर ताने देगी। कदाचित मौके की तैयारी भी करने लगे। यही उसकी बुरी आदत है कि या तो प्रेम और मृदुलता की देवी बन जायगी या बिगड़ेगी तो भालों से छेदने लगेगी। ज्ञानशंकर ने मुझे ऐसे संकट में डाल रखा है कि उससे निकलने का कोई मार्ग ही नही दिखता।

ज्वालासिंह इसी हैस-वैस में पड़े हुए थे कि अचानक ज्ञानशंकर सामने पैरगाड़ी पर आते दिखायी दिए। ज्वालासिंह तुरन्त कुर्सी से उठ खड़े हुए और साईंस को जोर से पुकारा कि घोड़ा ला। साईंस घोड़े को कसे हुए तैयार खडा था। यह हुक्म पाते