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प्रेमाश्रम


प्रेम—जरा लखनपुर जा रहा है, और आप?

ज्वाला—मैं भी वहीं चलता हूँ।

प्रेम—अच्छा साथ हुआ। क्या कोई मुकदमा है?

ज्वालासिंह ने सिगार जला कर मुकदमे का वृत्तान्त कह सुनाया। प्रेमशंकर गौर में सुनते रहे, फिर बोले, आपने उन्हें समझाया नहीं कि गरीबों को क्यों तंग करते हो?

ज्वाला—मैं इस विषय में उनसे क्योकर कुछ कहता? हाँ, स्त्रियों में जो बातें हुई उनमें मालूम होता है कि वह अपनी जरूरतों से मजबूर है, उनका खर्च नहीं चलता।

प्रेम—दो हजार साल की आमदनी तीन-चार प्राणियों के लिए तो कम नहीं होती।

ज्वाला—लेकिन इसमें आधा तो आपका है।

प्रेम—जी नहीं, मैरा कुछ नहीं है। मैंने उनसे साफ-साफ कह दिया है कि मैं इस जायदाद में हिस्सा नहीं लेना चाहता।

ज्वालासिंह—(आश्चर्य से) क्या आपने उनके नाम हिस्सा कर दिया?

प्रेम—जी नहीं, लेकिन हिस्सा ही समझिए। मेरा सिद्धांत है कि मनुष्य को अपनी मेहनत की कमाई खानी चाहिए। यही प्राकृतिक नियम है। किसी को यह अधिकार नहीं हैं कि वह दूसरों की कमाई को अपनी जीवन-वृत्ति का आधार बनाये।

ज्वाला—तो यह कहिए कि आप जमींदारी के पैसों को ही बुरा समझते हैं।

प्रेम—हाँ, मैं इसका भक्त नहीं हूँ। भूमि उसकी है जो उसको जोते। शामक को उसकी उपज में भाग लेने का अधिकार इसलिए है कि वह देश मे शान्ति और रक्षा की व्यवस्था करता है, जिसके बिना खेती हो ही नहीं सकती। किसी तीसरे वर्ग का समाज में कोई स्थान नहीं है।

ज्वाला—महाशय, इन विचारो से तो आप देश में क्रान्ति मचा देगे। आपके सिद्धान्त के अनुसार हमारे बड़े-बड़े जमींदारों, ताल्लुकेदारो और रईसौ का समाज में कोई स्थान ही नहीं है। सब के सब डाकू है।

प्रेम—इसमे इनका कोई दोष नहीं, प्रथा का दोष है। इस प्रथा के कारण देश की कितनी आत्मिक और नैतिक अवनति हो रही हैं, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। हमारे समाज का वह भाग जो बल, बुद्धि, विद्या में सर्वोपरि है, जो हृदय और परिपक के गुणों से अलंकृत हैं, केवल इसी प्रथा के वन आलस्य, विलास और अविचार के बन्धनों में जकड़ा हुआ है।

ज्वालासिंह— कहीं आप इन्हीं बातों का प्रचार करने तो लखनपुर नहीं जा रहे हैं कि मुझे पुलिस की सहायता न माँगनी पड़े।

प्रेम—हाँ, शांति भंग कराने का अपराध मुझ पर हो तो जरुर पुलिस की सहायता लीजिए।

ज्वालासिंह—मुझे अब आप पर कड़ी निगाह रखनी पड़ेगी। मैं भी छोटा-मोटा जमींदार हूँ। आपसे डरना चाहिए। इस समय लखनपुर ही जाइएगा या आगे