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प्रेमाश्रम

आंधी, कभी पानी, कभी आग। खेतों में अनाज सड़ा जाता हैं। कैसे काटे, कहाँ रखें? बस, भोर को घरों में एक बेर चूल्हा जलता है। फिर दिन भर कही आग नहीं जलती। चिलम को तरस कर रह जाते है। हजूर, रोते नहीं बनता, दुर्दशा हो ही है। उस पर मालिकों की निगाह भी टेढ़ी हो गयी है। सौ काम छोड़ कर कचहरी दौड़ना पड़ता है। कभी-कभी तो घर में लाश छोड़ कर जाना पड़ता है। क्या करे, जो सिर पर पड़ी है उसे झेलते है। हजुर को एक गुलाम था। अच्छा पड़ा था। सारी गृहस्थी सँभाले हुए था। तीन घड़ी में चल बसा। मुँह में बोल तक न निकली। मुक्खू चौधरी का तो घर ही सत्यानाश हो गया। बस, अब अकेले इन्हीं का दम रह गया है। बेचारे डपटसिंह का छोटा लड़का कल मरा है, आज बड़ा लड़का बिमार है। अल्ला ही बचाये तो बचे। जुबान बन्द हो गयी है। लाल-लाल आँखे निकाले खाट पर पड़ा हाथ-पैर पटक रहा है। कहाँ तक गिनाये, खुदा-रसूल, देवी-देवता सभी की मन्नने मानते हैं पर कोई नहीं सुनता। अब तक तो जैसे बन पड़ा मुकदमे की उजरदारी की। अब वह हिम्मत भी नहीं रही। किसके लिए यह सब करे? इतने पर भी मालिकों को दया नहीं आती।

प्रेमशंकर-जरा मैं डपटसिंह के लड़के को देखना चाहता हूँ।

कादिर- हाँ हजूर, चलिए मैं चलता हूँ।

ज्वालासिंह-जरा सावधान रहिएगा, यह रोग संक्रामक होता है।

प्रेमशंकर ने इसका कुछ उत्तर न दिया। औषधियों का बैग उठाया और कादिर खाँ के पीछे-पीछे चले। डपटसिंह के झोपड़े पर पहुँचे तो आदमियों की बड़ी भीड़ लगी हुई थी। एक आम के पेड़ के नीचे रोगी की खाट पड़ी हुई थी। डपटसिंह और उनके छोटे भाई डपदसिंह सिरहाने खड़े पखें झल रहे थे। दो स्त्रियाँ पाँयते की ओर खड़ी रो रही थी प्रेमशंकर को देखते ही दोनों अन्दर चली गयी। दोनों भाइयों ने उनकी ओर दीन भाव से देखा और अलग हट गये। उन्होंने उष्णता-मापक यंत्र से देखा तो रोगी को ज्वर १०७ दरजे पर था। त्रिदोष के लक्षण प्रकट थे। समझ गयें कि यह अब दम भर का और मेहमान है। अभी वह बैग से औषधि निकाल ही रहे। थे कि मरीज एक बार जोर से चीख मार कर उठा और फिर खाट पर गिर पड़ा। आँखे पथरा गयी। स्त्रियों मे पिट्टस पड़ गयी। डपदसिंह शोकातुर हो कर मृत शरीर से लिपट गया और रो कर बोला, बेटा! हाय बेटा!

यह कहते-कहते उसकी आँखे रक्त वर्ण हो गयी। उन्माद-सा छा गया, गीली लकड़ी पहली आँच में रसती है, दूसरी आँच में जल कर भस्म हो जाती है। डपटसिंह शौक-संताप से विह्वल हो गया। खड़ा हो कर बोला, कोई इस घर में आग क्यों नहीं लगा देता? अब इसमें क्या रखा है? कैसी दिल्लगी है! बाप बैठा रहे और बेटा चल दे! इन्हीं हाथों से मैंने इसे गोद में खिलाया था। इन्हीं हाथों से चिंता की गोद में कैसे बिठा दूँ। कैसा रुला कर चल दिया मानों हमसे कोई नाता ही नहीं है। कहता था, दादा तुम बूढ़े हुए, अब बैठे-बैठे राम-राम-करो, हम तुम्हारी परवस्ती