पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/१४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५४
प्रेमाश्रम

उनकी गर्द को भी न पहुँचा। जान पड़ता था हवा में उड़े जाते हैं। लोगों के दम फूल गये, कोई यह रहा, कोई वहाँ गिरा। अकेले बलराज ने उनका पीछा न छोड़ा, यहाँ तक कि डपटसिंह बेदम हो कर जमीन पर गिर पड़े। बलराज दौड़कर उनकी छाती से लिपट गया और तब अपने अँगोछे से उन्हें हवा करने लगा। जब उन्हें होश आया तो हाथ पकड़े हुए घर लाया।

ज्वालासिंह की करुणा भी जाग्रत हो गयी। प्रेमशंकर से बोले बाबू साहब बड़ा शोकमय दृश्य है।

प्रेमशंकर--कुछ न पूछिए, कलेजा मुंह को आया जाता है।

कई आदमी बाँस काटने लगे, लेकिन तीसरे पहर तक लाश न उठी।

प्रेमशंकर ने कादिर ने पूछा-देर क्यों हो रही है।

कादिर-हुजूर, क्या कहे? घर में रुपयें नहीं है। बेचारा डपट रुपये के लिए इधर-उधर दौड़ रहा है, लेकिन कहीं नहीं मिलते। हमारी जो दशा है सरकार, हमीं जानने है। जाफा लगान के मुकदमे ने पहले ही हाँडी तावा गिरो रखवा दिया था। इस बीमारी ने रही-सही कसर भी पूरी कर दीं। अब किसी के घर में कुछ नहीं रहा। प्रेमशंकर ने ठंडी साँस लेकर ज्वालासिंह से कहा, देखी आपने इनकी हालत? घर में कौड़ी कफन को नहीं।

ज्वालासिंह--मुझे अफसोस आता है कि इनसे पिछले साल मुचलका क्यों लिया। मैं अब तक न जानता था कि इनकी दशा इतनी हीन है।

प्रेम---मुझे खेद है कि मकान से कुछ रुपये ले कर न चला।

ज्वाला-रुपये मेरे पास हैं, पर मुझे देते हुए संकोच होता है। शायद इन्हें बुरा लगे? आप ले कर दे दे, तो अच्छा हो।

प्रेमशंकर ने २० रु० का नोट ले लिया और कादिर खाँ को चुपके से दे दिया। एक आदमी तुरन्त कफन लेने को दौड़ा। लाश उठाने की तैयारी होने लगी। स्त्रियों में फिर कोहराम मचा। जब तक शव घर में रहता है, घरवालों को कदाचित् कुछ आशा लगी रहती है। उसको घर से उठना पार्थिव वियोग का अन्त है। वह आशा के अन्तिम सूत्र को तोड़ देता है।

तीसरे पहर लाश उठी। सारे गाँव के पुरुष साथ चले। पहले कादिर खाँ ने कंधा दिया।

ज्वालासिंह को सरकारी काम था, वह लौट पड़े। लेकिन प्रेमशंकर ने दो-चार दिन उहाँ रहने का निश्चय किया।



२२

एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दुकानों पर जमघट होने लगी था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर में मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा शर्बत पी रहे थे कि