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प्रेमाश्रम

पूछा जाय कि सारे गाँव ने घी के रुपये लिये तो तुम्हें नाही करने में क्या पड़ी थी?

कादिर--इनकी भूल है और क्या दस रुपये हमे भी लेने पड़े, क्या करते? और यह कोई नयी बात थोड़े ही है? बड़े सरकार थे तब भी तो एक न एक बेगार लगी ही रहती थी।

मनोहर-भैया, तब की बाते जाने दो। तब साल दो साल की देन बाकी पड़ जाती थी। मुदा मालिक कभी कुड़की बेदखली नहीं करते थे। जब कोई काम-काज पड़ता था, तब हमको नेवता मिलता था। लड़कियों के ब्याह के लिए उनके यहां से लकड़ी, चारा और २५ रु० बँधा हुआ था। यह सब जानते हो कि नहीं? जब वह अपने लड़कों की तरह पालते थे तो रैयत भी हँसी-खुशी उनकी बेगार करती थी। अब यह बाते तो गयी, बस एक न एक पन्चड़ लगा ही रहता है। तो जब उनकी ओर से यह कड़ाई हैं। तो हम भी कोई मिट्टी के लोदे बड़े ही है?

कादिर-तब की बाते छोड़ो, अब जो सामने है उसे देखो। चलो, जल्दी करो, मैं इसी लिए तुम्हारे पास आया हूँ। मेरे बैल खेत में खड़े हैं।

मनोहर--दादा, मैं तो न जाऊँगा।

बिलासी–इनकी चूड़ियाँ मैली हो जायेंगी, चलो मैं चलती हूँ।

कादिर और बिलासी दोनों चौपाल चले। वहीं इस वक्त बहुत से आदमी जमा थे। कुछ लोग लगान के रुपये दाखिल करने आये, कुछ घी के रुपये लेने के लिए और कुछ केवल तमाशा देखने और ठकुरसुहाती करने के लिए। कारिदे का नाम गुलाम गौस खाँ था। वह बृहदाकार मनुष्य थे, साँवला रंग, लम्बी दाढी, चेहरे से कठोरता झलकती थी। अपनी जवानी मै वह पलटन में नौकर थे और हवलदार के दरजे तक पहुंचे थे। जब सीमा प्रान्त में कुछ छेड़छाड़ हुई तब बीमारी की छुट्टी ले कर घर भाग आये और यही से इस्तीफा पेश कर दिया। वह अब भी अपने सैनिक जीवन की कथाएँ मजे ले-ले कर कहते थे। इस समय वह तख्त पर बैठे हुए हुक्का पी रहे थे। सुक्खू और दुखरन तख्त के नीचे बैठे हुए थे।

सुक्खू ने कहा, हम मजदूर ठहरे, हम घमंड करे तो हमारी भूल है। जमीदार की जमीन में बसते हैं, उसका दिया जाते है, उससे बिगड़ कर कहाँ जायँगै-क्यों दुखरन?

दुखरन हाँ, ठीक ही है।

सुक्खू नारायण हमे चार पैसे दे, दस मन अनाज है तो क्या हम अपने मालिको से लड़े, मारे घमंड के धरती पर पैर न रखें?

दुखरन---यही मद तो आदमी को खराब करता है। इसी मद ने रावण को मिटाया, इसी के कारण जरासघ और दुरजोधन का सर्वनाश हो गया। तो भला हमारी-तुम्हारी कौन बात है।

इतने में कादिर मियाँ चौपाल में आये। उनके पीछे-पीछे बिलासी भी आयी। कादिर ने कहा, खाँ साहब, यह मनोहर की घरवाली आयी है, जितने रुपये चाहे घी के लिए दे दें। बेचारी डर के मारे आती न थी।