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प्रेमाश्रम

यह फैसला सुना तो दाँत पीस कर रह गये। क्रोध में भरे हुए घर आये और विद्या पर जले दिल के फफोले फोडे । आज बहुत दिनो के बाद लाला प्रभाशकर के पास गये और उनसे भी इस असद्व्यवहार का रोना रो आये । एक सप्ताह तक यहीं क्रम चलना रहा। शहर में ऐसा कोई परिचित आदमी न था, जिससे उन्होने ज्वालासिह के कपट व्यवहार की शिकायत न की हो। यहाँ तक कि रिश्वत का दोषारोपण करने में भी सकोच न किया और उन्हें शब्दाघात से ही तस्कीन न हुई। कलम की तलवार से भी चोटे करनी शुरू की। कई दैनिक पत्रो में ज्वालासिंह की खबर ली। जिस पत्र में देखिए उसी में उनके विरुद्ध कालम के कालम भरे रहते थे। ऐग्लो-इण्डियन पत्रो को हिन्दुस्तानियों की अयोग्यता पर टिप्पणी करने का अच्छा अवसर हाथ आया। एक महीने तक यही रौला मचा रहा। ज्वालासिंह के जीवन का कोई अग कलक और अपवाद से न बचा। एक सपादक महाशय ने तो यहाँ तक लिख मारा कि उनका मकान शहर भर के रसिक जनो का अखाडा है। ज्ञानशकर के रचना कौशल ने उनके मनोमालिन्य के साथ मिल कर ज्वालासिंह को अत्याचार और अविचार का काला देव बना दिया। बेचारे लेखो को पढ़ते थे और मन ही मन ऐठ कर रह जाते थे। अपनी सफाई देने को अधिकार न था। कानून उनका मुँह बन्द किये हुए था। मित्रों में ऐसा कोई न था जो पक्ष में कलम उठाता। पत्रो की मिय्यावादितापर कुढ-कुढ़ कर रह जाते थे, जो सत्या-सत्य का निर्णय किये बिना अधिकारियों पर छीटे उड़ाने में ही अपना गौरव समझते थे। घर से निकलना मुश्किल हो गया। शहर में जहाँ देखिए यही चर्चा थी। लोग उन्हे आते-जाते देख कर खुले बन्दो उनका उपहास करते थे। अफसरों की निगाह भी बदल गयी। जिलाधीश से मिलने गये। उसने कहला भेजा मुझे फुरसत नही है। कमिश्नर एक बगाली सज्जन थे। उनके पास फरियाद करने गये। उन्होने सारा वृत्तात बड़ी सहानुभूति के साथ सुना, लेकिन चलते समय बोले, यह असम्भव है कि इस हल चल का आप पर कोई असर न हो। मुझे शका है कि कहीं यह प्रश्न व्यवस्थापक सभा में न उठ जाय। मैं यथा शक्ति आप पर ऑच न आने दूँगा। लेकिन आपको न्यायोचित समर्थन करने के लिए कुछ नुकसान उठाने पर तैयार रहना चाहिए, क्योकि सन्मार्ग फूलो की सेज नही है।

एक दिन ज्वालासिंह इन्हीं चिन्ताओ मे मग्न बैठे हुए थे कि प्रेमशकर आये। ज्वालासिंह दौड कर उनके गले लिपट गये। आँखे सजल हो गयी, मानो अपने किसी परम हितैषी से भेट हुई हो। कुशल समाचार के बाद पूछा, देहात से कब लौटे?

प्रेमशकर--आज ही आया हूँ। पूरे डेढ महीने लग गयें। दो तीन दिन का इरादा करके घर से चला था। हाजीगजवाले बार-बार बुलाने में जाते तो मैं जेठ भर वहाँ और रहता।

ज्वाला--बीमारी की क्या हालत है ?

प्रेमशकर--शान्त हो गयी है। यह कहिए, समाचार पत्रों में क्यों हरबोग मचा हुआ है? मैंने तो आज देखा। दुनिया में क्या हो रहा है इसकी कुछ खबर ही न थी।