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प्रेमाश्रम

यह मंडली तो बेतरह आपके पीछे पड़ी हुई है।

ज्वाला—उनकी कृपा है और क्या कहूँ?

प्रेम—मैं तो देखते ही समझ गया कि यह ज्ञानशंकर के दावे को खारिज कर देने का फल है।

ज्वाला—बाबू ज्ञानशंकर से कभी ऐसी आशा न थी कि मुझे अपना कर्तव्य पालन करने का यह दण्ड दिया जायेगा। अगर वह केवल मेरी न्याय और अधिकार-संबंधी बातो पर आघात करते तब भी मुझे खेद न होता। मुझे अत्याचारी कहते, जुल्मी कहते, निरंकुस सिद्ध करते—हम इन आक्षेपों के आदी होते है। दुख इस बात का है कि मेरे चरित्र को कलंकित किया गया है। मुझे अगर किसी बात का घमण्ड है तो वह अपने आचरण का है। मेरे कितने ही रसिक मित्र मुझे वैरागी कहकर चिढ़ाते है। यहाँ मैं कभी थियेटर देखने नही गया, कभी मेला तमाशा तक नहीं देखा। बाबू ज्ञानशंकर इस बात से भली-भाँति परिचित है। लेकिन मुझे सारे शहर के छैलो का नेता बनाने में उन्हें लेश-मात्र सकोच न हुआ। इन आक्षेपों से मुझे इतना दुख हुआ है कि उसे प्रकट नहीं कर सकता। कई बार मेरी इच्छा हुई कि विष खा लूँ। आपसे मेरा परिचय बहुत थोडा हैं, लेकिन मालूम नहीं क्यो जी चाहता है कि आपके सामने हृदय निकाल कर रख दूँ। मैंने कई बार जहर खाने का इरादा किया, किन्तु यह सोच कर कि कदाचित् इससे इन आक्षेपों की पुष्टि हो जायगी, रुक गया। यह भय भी था कि शीलमणि रो-रो कर प्राण न त्याग दे। सच पूछिए, तो उसी के श्रद्धामय प्रेम ने अब तक मेरी प्राण-रक्षा की है, अगर वह एक क्षण के लिए भी मुझसे विमुख हो जाती तो मैं अवश्य ही आत्म-धात कर लेता। ज्ञानशंकर मेरे स्वभाव को जानते हैं। मैं और वह बरसों तक भाइयो की भाँति रहे हैं। उन्हें मालूम है कि मेरे हृदय में मर्मस्थान कहाँ है। इसी स्थान को उन्होंने अपनी कलम से बेघा और मेरी आत्मा की सदा के लिए निर्बल बना दिया।

प्रेम—मैं तो आपको यही सलाह दूंगा कि इन पत्रों पर मान-हानि का अभियोग चलाइए। इसके सिवा अपने को निर्दोष सिद्ध करने का कोई उपाय नही है। मुझे इनकी जरा भी परवाह नहीं कि ज्ञानशंकर पर इसका क्या असर पड़ेगा। उन्हें अपने कर्मो का दंड मिलना चाहिए। मैं स्वय सहिष्णुता का भक्त हूँ लेकिन यह असंभव है कि कोई चरित्र पर मिथ्या कलंक लगाये और मैं मौन धारण किये बैठा रहूँ। आप वकीलों से सलाह ले कर अवश्य मान-हानि का मुकदमा चलाइए।

ज्वालासिंह कुछ सोच कर बोले, और भी बदनामी होगी।

प्रेम—कदापि नही। आपको इन मिथ्याक्षेपी के प्रतिवाद करने का अवसर मिलेगा और जनता की दृष्टि में आपका सम्मान बढ़ जायेगा। ऐसी दशा में आपका चुप रह जाना अक्षम्य ही नहीं, दूषित है। यह न समझिए कि मुझे ज्ञानशंकर से द्वेष था अपवाद से प्रेम है। मैं इस मामले को केवल सिद्धांत की निष्पक्ष दृष्टि से देखता हूँ। मान-रक्षा हमारा धर्म हैं।