क्या वह इतना भी नहीं कर सकते कि इन गमलों को सीच दे? आपको व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ता है।
प्रेम--मुझे उनसे काम लेने का कोई अधिकार नहीं है। वह मेरे निज के नौकर नहीं हैं। मैं तो केवल यहाँ का निरीक्षक हैं और फिर मैंने अमेरिका में तो हाथ से बर्तन धोये हैं, होटलों की मेजे साफ की है, सड़को पर झाड़ू दी है, यहाँ आ कर में कोई और तो नहीं हो गया। मैंने यहाँ कोई खिदमतगार नहीं रखा है। अपना सब काम कर लेता हूँ।
ज्ञान-तब तो आपने हद कर दी। क्या मैं पूछ सकता हूँ कि आप क्यों अपनी आत्मा को इतना कष्ट देते है।
प्रेम मुझे कोई कष्ट नहीं होता। हाँ, इसके विरुद्ध आचरण करने में अलवत्ता कष्ट होगा। मेरी आदत ही ऐसी पड़ गयी है।
ज्ञान--यह तो आप मानते हैं कि आत्मिक उन्नति की भिन्न-भिन्न कक्षाएँ होती है।
प्रेम–मैंने इस विषय में कभी विचार नहीं किया और न अपना कोई सिद्धान्त स्थिर कर सकता हूँ। उस मुकदमें की अपील अभी दायर की या नहीं?
ज्ञान-जी हाँ दायर कर दी। आपने ज्वालासिंह की सज्जनता देखी? यह महाशय मेरे बनाये हुए हैं। मैंने ही इन्हें रटा-रटा के किसी तरह बी० ए० कराया। अपना हर्ज करना था, पर पहले इनकी कठिनाइयों को दूर कर देता था। इस नेकी का इन्होंने यह बदला दिया। ऐसा कृतघ्न मनुष्य मैंने नहीं देखा।
प्रेम-पत्रों में उनके विरुद्ध जो लेख छपे थे। वह तुम्हीं ने लिखे थे?
ज्ञान—जी हाँ। जब वह मेरे साथ ऐसा व्यवहार करते है, तब मैं क्या उनसे रियायत करूँ?
प्रेम-तुम्हारा व्यवहार बिलकुल न्याय-विरुद्ध था। उन्होनें जो कुछ किया न्याय समझ कर किया। उनका उद्देश्य तुम्हें नुकसान पहुँचाना न था। तुमने केवल उनका अनिष्ट करने के लिए यह आक्षेप किया।
ज्ञान–जब आपस मे अदावत हो गयी तब सत्यता का विवेचन कौन करता है? धर्म-युद्ध का समय अब नहीं रहा।
प्रेम–नौ यह सब तुम्हारी मिथ्या कल्पना है?
ज्ञान---जी हाँ, आपके सामने, लेकिन दूसरों के सामने
प्रेम---(बात काट कर) वह मान हानि का दावा कर दें तो?
ज्ञान इसके लिए बड़ी हिम्मत चाहिए और उनमें हिम्मत का नाम नहीं। यह सब रोब-दाद दिखाने को ही हैं। अपील का फैसला मेरे अनुकूल हुआ, तो अभी उनकी और खबर लूंगा। जाते कहां हैं और कुछ न हुआ हो बदनामी के साथ तबदील तो हो ही जायँगे। अबकी तो आपने लखनपुर की खूब सैर की, असामियों ने मेरी खूब शिकायत की होगी?
प्रेम–हाँ, शिकायत सभी कर रहे हैं।