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प्रेमाश्रम

इतने रुपये होगे।

ज्ञान-उनकी कपट नीति ने मेरे सारे मनसुबों को मिट्टी में मिला दिया। जब उनको मुझसे इतना वैमनस्य है तो मैं नहीं समझता कि मैं उन्हें अपना भाई कैसे समझूँ। बिरादरीवालों ने उनका जो तिरस्कार किया वह असंगत नहीं था। विदेश-निवास आत्मीयता का नाश कर देता है।

श्रद्धा- तुम्हें भ्रम हुआ है।

ज्ञान--फिर वही बच्चों की-सी बातें करती हो। तुम क्या जानती हो कि उनके पास रुपये थे या नहीं?

श्रद्धा--तो जरा वहाँ तक चले ही क्यों नहीं जाते?

ज्ञान–अब नहीं जा सकता। मुझे उनकी सूरत से घृणा हो गयी। उन्होंने असामियों का पक्ष लिया है तो मैं भी दिखा दूंगा कि मैं क्या कर सकती हैं। जमींदार के बावन हाथ होते है। लखनपुर वालों को ऐसा कुचलूंगा कि उनकी हड्डियों का पता न लगेगा। भैया के मन की बात मैं जानता हूँ। तुम सरल स्वभाव हो, उनकी तह तक नहीं पहुँच सकती। उनका उद्देश्य इसके सिवा और कुछ नहीं है कि मुझे तंग करें, असामियों को उभारकर मुसल्लम गाँव हथिया लें और हम-तुम कहीं के न रहे। अब उन्हें खुब पहचान गया। रंगे हुए सियार हैं—मन में और मुंह में और। और फिर जिसने अपना धर्म खो दिया वह जो कुछ न करे वह थोड़ा है। इनसे तो बेचारा ज्वालासिंह फिर भी अच्छा है। उसने जो कुछ किया न्याय समझ कर किया, मेरा अहित न करना चाहता था। एक प्रकार से मैंने उसके साथ बड़ा अन्याय किया, उसे देश भर में बदनाम कर दिया। उन बातों को याद करने से ही दुख होता है।

श्रद्धा--उनकी तो यहाँ से बदली हो गयी। शीलमणि की महुरी आज आयी थी। कहती थी, तीन-चार दिन में चले जायेंगे। दर्जा भी घटा दिया गया है।

ज्ञानशंकर ने चौक कर कहा- सच।

श्रद्धा-शीलमणि कल आनेवाली हैं। विद्या बड़े संकोच में पड़ी हुई है।

ज्ञान----मुझसे बड़ी भूल हुई। इसका शोक जीवन-पर्यन्त रहेगा। मुझे तो अब इसका विश्वास हो जाता है कि भैया ने उनके कान भी भर दिये थे। जिस दिन बहू मौका देखने गये थे उसी दिन भैया भी लखनपुर पहुँचे। बस, इधर तो ज्वालासिंह को पट्टी पढ़ायी, उधर गांववालो को पक्का-पोढ़ा कर दिया। मैं कभी कल्पना भी न कर सकता था कि वह इतनी दूर की कौड़ी लायेंगे, नहीं तो मैं पहले से ही चौकशा रहता।

श्रद्धा ने ज्ञानशंकर को अनादर की दृष्टि से देखा और वहाँ से उठ कर चली गयीं।

दूसरे दिन शीलमणि आयी और दिन भर वहाँ रही। चलते समय विद्या और श्रद्धा से गले मिल कर खूब रोयी।

ज्वालासिंह पाँच दिन और रहें। ज्ञानशंकर रोज उनसे मिलने का विचार करते, लेकिन समय आने पर कातर हो जाते थे। भय होता, कहीं उन्होंने उन आक्षेपपूर्ण लेखों की चर्चा छेड़ दी तो क्या जवाब दूंगा? धँधली तो कर सकता हूँ, साफ मुकर