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प्रेमाश्रम

जाऊँ कि मैने कोई लेख नहीं लिखा, मेरे नाम से तो कोई लेख छपा नही किन्तु शका होती थी कि कही इस प्रपच से ज्वालासिंह की आँखों मे और न गिर जाऊँ।

पाँचवें दिन ज्वालासिह यहाँ से चले। स्टेशन पर मित्र-जनो की अच्छी सख्या थी। प्रेमशकर भी मौजूद थे। ज्वालासिंह मित्र के साथ मिल-मिल कर बिदा होते थे। गाडी के छूटने में एक-दो मिनट ही बाकी थे कि इतने में ज्ञानशकर लपके हुए प्लेटफार्म पर आये और पीछे की श्रेणी में खड़े हो गये। आगे बढ़ कर मिलने की हिम्मत न पडी। ज्वालासिंह ने उन्हें देखा और गाड़ी से उतर कर उनके पास आये और गले से लिपट गये। ज्ञानशकर की आँखो से आँसू बहने लगे। ज्वालसिंह रोते थे कि चिरकाल की मैत्री का ऐसा शौकमय अन्त हुआ, ज्ञानशकर रोते थे कि हाय ! मेरे हाथो ऐसे सच्चे, निश्छल, नि स्पृह मित्र को अमगल हुआ।

गार्ड ने झंडी दिखायी तो ज्ञानशकर ने कम्पित स्वर में कहा, भाई जान, मैं अत्यन्त लज्जित हूँ।

ज्वालासिंह बोले, उन बातो को भूल जाइए।

ज्ञान--ईश्वर ने चाहा तो इसका प्रतिकार कर दूंँगा।

ज्वाला--कभी-कभी पत्र लिखते रहिएगा, भूल न जाइएगा।

लोगो को दोनो मित्रो के इस सद्व्यवहार पर कुतूहल हुआ। उनके विचार मै उस घाव का भरना दुस्तर था। सबसे ज्यादा आश्चर्य प्रेमशकर को हुआ, जो ज्ञानशकर को उससे कही असज्जन समझते थे, जितने वह वास्तव में थे।



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अपील खारिज होने के बाद ज्ञानशकर ने गोरखपुर की तैयारी की। सोचा, इस तरह तो लखनगुर से आजीवन गला न छूटेगा, एक न एक उपद्रव मचा ही रहेगा। कहीं गोरखपुर में रग जम गया तो दो-तीन वरसो में ऐसे कई लखनपुर हाथ में जायेगे। विद्या भी स्थिति का विचार करके सहमत हो गयी। उसने सोचा, अगर दोनों भाइयों में यों ही मनमुटाव रहा तो अवश्य ही बँटवारा हो जायगा और तब एक हजार सालाना आमदनी मे निर्वाह हो न सकेगा। इनसे और काम तो हो सकेगा नहीं। वला से जो काम मिलता है वही सही। अतएव जन्माष्टमी के उत्सव के बाद गोरखपुर जा पहुँचे। प्रेमशंकर से मुलाकात न की।

प्रभात का समय था। गायत्री पुजा पर थी कि दरवान ने ज्ञानशकर के आने की सूचना दी। गायत्री ने तत्क्षण तो उन्हें अन्दर न बुलाया, हाँ, जो पूजा नौ बजे समाप्त होती थी, वह सात ही बजे समाप्त कर दी। तब अपने कमरे में आ कर उसने एक सुन्दर साड़ी पहनी, विखरे हुए केश सँवारे और गौरव के साथ मसनद पर जा बैठी। लौडी को इशारा किया कि ज्ञानशकर को बुला लाय। वह अब रानी थी। यह उपाधि उसे हाल में ही प्राप्त हुई थीशश। वह ज्ञानशकर से यथोचित आरोह से मिलना चाहती थी।