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प्रेमाश्रम

तिस पर भी पत्रों में महीनों तक इसकी चर्चा होती रही। हम इतना ही कह देना काफी समझते है कि दरबार विधिपूर्वक समाप्त हुआ, कोई त्रुटि न रही, प्रत्येक कार्य निदष्ट समय पर हुआ, किसी प्रकार की अव्यवस्था न होने पायी। इस विलक्षण सफलता का सेहरा ज्ञानशंकर के सिर था। ऐसा मालूम होता था कि सभी कठपुतलियाँ उन्हीं के इशारे पर नाच रही हैं। गवर्नर महोदय ने विदाई के समय उन्हें धन्यवाद दिया। चारो तरफ वाह-वाह हो गयी।

सन्ध्या समय था। दरबार समाप्त हो चुका था। ज्ञानशंकर नगर के मान्य जनों के साथ गवर्नर को स्टेशन तक बिंदा करके लौटे थे और एक कोच पर आराम से लेटे सिगार पी रहे थे। आज उन्हें सारा दिन दौड़ते गुजरा था, जरा भी दम लेने का अवकाश न मिला था। वह कुछ अलसाये हुए थे, पर इसके साथ ही हृदय पर वह उल्लास छाया हुआ था जो किसी आशातीत सफलता के बाद प्राप्त होता है। वह इस समय जब अपने कृत्यों का सिंहावलोकन करते थे तो उन्हें अपनी योग्यता पर स्थय आश्चर्य होता था। अभी दो-ढाई मास पहले मैं क्या था? एक मामूली आदमी, केवल दो हजार सालाना का जमींदार! शहर में कोई मेरी बात भी न पूछता था, छोटे-छोटे अधिकारियों से भी दबती था और उनकी खुशामद करता था। अब यहाँ के अधिकारी वर्ग मुझसे मिलने की अभिलाषा रखते है। शहर के मान्य गण अपना नेता समझते हैं। बनारस में तो सारी उम्र बीत जाती तब भी यह सम्मान-पद में लाभ होता। आज गायत्री का मिजाज भी आसमान पर होगा। मुझे जरा भी आशा न थी कि वह इस तरह बेधड़क मच पर चली आयेगी। वह मंच पर आयी तो सारा दरबार जगमगाने लगा था। उसके कुन्दन वर्ष पर अगरई साड़ी कैसी छटा दिखा रही थी! उसके सौन्दर्य की आभा ने रत्नों की चमक-दमक को भी मात कर दिया था। विद्या इससे कहीं रूपवती हैं, लेकिन उसमें यह आकर्षण कहाँ, यह उत्तेजक शक्ति कहाँ, यह सगवता कहाँ, यह रसिकता कहाँ? इसके सम्मुख आ कर आँखों पर, चित्त पर, जबान पर काबू रखना कठिन हो जाता है। मैंने चाहा था कि इसे अपनी ओर खीचूँ, इससे मान करूँ किन्तु कोई शक्ति मुझे बलात् उसकी ओर खींचे लिए जाती है। अब मैं रुक नहीं सकता। कदाचित् वह मुझे अपने समीप आते देख कर पीछे हटती है, मुझसे स्वामिनी और सेवक के अतिरिक्त और कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहती। वह मेरी योग्यता का आदर करती है और मुझे अपनी सम्मान तृष्णा का साधन-मात्र बनाना चाहती है। उसके हृदय मे अब अगर कोई अभिलाषा है तो वह सम्मान-प्रेम है। यही अब उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य है। मैं इसी का आवाहन करके थहाँ पहुँचा हैं और इसी की बदौलत एक दिन मैं उसके हृदय में प्रेम का बीज अंकुरित कर सकूँगा।

ज्ञानशंकर इन्हीं विचारों में मग्न थे कि गायत्री ने अन्दर बुलाया और मुस्करा कर कहा, आज के सारे आयोजन का श्रेय आपको है। मैं हृदय से आपकी अनुग्रहीत हैं। सब बहादुर ने चलते समय आपकी बड़ी प्रशंसा की। आपने मजदूरों की मजदूरी तो दिला दी है। मैं इस आयोजन में बेगार के कर किसी को दुखी नहीं करना चाहती।