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प्रेमाश्रम


ज्ञान-जी हाँ, मैंने मुख्तार से कह दिया था।

गायत्री--मेरी ओर से प्रत्येक मजदूर को एक-एक रुपया इनाम दिला दीजिए।

ज्ञान–पाँच सौ मजदूरों से कम न होंगे।

गायत्री--कोई हर्ज नहीं, ऐसे अवसर रोज नहीं आया करते। जिस ओवरसियर ने पण्डाल बनवाया है, उसे १०० ९० इनाम दे दीजिए।

ज्ञान-बह शायद स्वीकार न करे।

गायत्री--यह रिश्वत नहीं, इनाम है। स्वीकार क्यों न करेगा? फराशो-आतश-बाजो को भी कुछ मिलना चाहिए।

ज्ञान--तो फिर हलवाई और बावची, खानसामें और खिदमतगार क्यों छोड़े जायँ?

गायत्री-नहीं, कदापि नहीं, उन्हें २०)२०) से कम न मिलें।

ज्ञान--(हँस कर) मेरी सारी मितव्ययिता निष्फल हो गयी।

गायत्री-वाह, उसी की बदौलते तो मुझे हौसला हुआ है। मजूर को मजूरी कितनी ही दीजिए खुश नहीं होगा, लेकिन इनाम पा कर खुशी से फूल उठता है। अपने नौकरो को भी यथायोग्य कुछ न कुछ दिलवा दीजिए।

ज्ञान- जी, हाँ, जब बाहरवाले कूट मचायें तो घरवाले यों गीत गाये।

गायत्री- नहीं घरवालों को पहला हक है जो आठो पहर के गुलाम है। सब आदमियों को यही बुलाइए, मैं अपने हाथ से उन्हें इनाम देंगी। इसमें उन्हें विशेष आनन्द मिलेगा।

ज्ञान-घंटो की झंझट है। बारह बज जायेंगे।

गायत्री---यह झंझट नहीं है। यह मेरी हार्दिक लालसा है। अब मुझे कई बड़े-बड़े अनुष्ठान करने हैं। यह मेरे जड़ाऊ कंगन हैं। यह विद्या के भेंट है, कल इसको पारसल भेज दीजिए और ५०० रु० नकद।

ज्ञान--(सिर झुका कर) इसकी क्या जरूरत है? कौन सा मौका है?

गायत्री---और कौन सा मौका होगा? मेरे लड़के-लड़कियाँ भी तो नहीं है कि उनके विवाह में दिल के अरमान निकालेगी। यह कंगन उसे पसन्द भी था। पिछले साल इटाली से मँगवाया था। अब आपसे भी मैरी एक प्रार्थना है। आप मुझसे लौटे हैं। आप भी अपना हक वसूल कीजिए और निर्दयता के साथ।

ज्ञानशंकर ने शर्मातें हुए कहा--मेरे लिए आपकी कृपा-दृष्टि ही काफी है। इस अवसर पर मुझे जो कीर्ति प्राप्त हुई है वही मेरा इनाम है।

गायत्री-जी नहीं, मैं न मानूंगी। इस समय संकोच छोड़िए और सूद खानेवाल की भांति कठोर बन जाइए। यह आपकी कलम है, जिसने मुझे इस पद पर पहुँचाया है, नहीं तो जिले में मेरी जैसी कितनी ही स्त्रियाँ है, कोई उनकी बात भी नहीं पूछता। इस कलम की यथायोग्य पूजा किये बिना मुझे तस्कीन न होगी।

ज्ञान--इसकी जरूरत तो तब होती जब मुझे उससे कम आनन्द प्राप्त होता, जितना आप को हो रहा है।