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प्रेमाश्रम

के साथ नर्मी को बर्ताव करना पंसद करती थी, पर जब ज्ञानशंकर ने उसे हिसाब का व्यौरा समझाया तो उसकी आँखे खुल गयी। हजार से ज्यादा ऐसे असामी थे, जिन पर तत्काल बेदखली न दायर की जाती तो वे सदा के लिए जमींदार के काबू से बाहर हो जाते और २० हजार सालाना की क्षति होती। इजाफा लगान से आमदनी सवायीं हुई जाती थी। जिस रियासत से दो लाख सालाना भी न निकला था, उससे बिना किसी अड़चन के तीन लाख की निकासी होती नजर आती थी। ऐसी दशा में गायत्री अपने सुयोग्य मैनेजर से क्यों न सहमत होती?

तीन वर्ष तक सारी रियासत में हाहाकार मचा रहा। ज्ञानशंकर को नाना प्रकार के प्रलोभन दिये गये, यहाँ तक कि मार डालने की धमकियाँ भी दी गयी, पर वह अपने कर्मपथ से न हटे। यदि वह चाहते तो इन परिस्थितियों को अपरिमित धन संचय का साधन बन सकते थे, पर सम्मान और अधिकार ने अब उन्हें क्षुद्रताओं से निवृत्त कर दिया था।

किन्तु को मन्सूबे बंध करे ज्ञानशंकर यहाँ आये थे वे अभी तक पूरे होते नजर न आते थे। गायत्री उनका लिहाज करती थी, प्रत्येक विषय में उन्हीं की सलाह पर चलती थी, लेकिन इसके साथ ही वह उनसे कुछ खिंची रहती थी। उन्हें प्राय नित्य ही उससे मिलने का अवसर प्राप्त होता था। वह इलाके के दूरवर्ती स्थानों से भी मोटर पर लौट आया करते थे, लेकिन यह मुलाकात कार्य-सम्बन्धी होती थी। यहाँ प्रेमत्व-दर्शन का मौका न मिलता, दो-चार लौडियों खड़ी ही रहती, निराश हो कर लौट आते थे। वह आग जो उन्होंने हाथ सेंकने के लिए जलायी थी, अब उनके हृदय को भी गर्म करने लगी थी। उनकी आँखे गायत्री के दर्शन की भूखी रहती थी, उसका मधुर भाषण सुनने के लिए विकल। यदि किसी दिन मजबूर हो कर उन्हें देहात में ठहरना पड़ता या किसी कारण गायत्री से भेंट न होती तो वह उस अफीमची की भाँति अस्थिर-चित्त हो जाते थे, जिसे समय पर अफीम न मिले।

एक दिन गायत्री ने पप्रातः काल ज्ञानशंकर को अन्दर बुलाया। आजकल मकान की सफाई और सुफेदी हो रही थी। दीपमालिका को उत्सव निकट था। गायत्री बगीचे में बैठी हुई चिड़ियों को दाना चुगा रही थी। कोई कौड़ी न थी। ज्ञानशंकर का हृदय चिड़ियों की भाँति फुदकने लगा। आज पहली बार उन्हें ऐसा अवसर मिला। गायत्री ने उन्हें देख कर कहा, आज आपको बहुत जरूरी काम तो नहीं है? मैं आपसे एक खास मामले में कुछ राय लेना चाहती हूँ।

ज्ञानशंकर--कुछ हिसाब-किताब देखना था, लेकिन कोई ऐसा जरूरी काम नहीं है।

गायत्री--मेरे स्वामी ने अन्तिम समय मुझे वसीयत की थी कि अपने बाद यह इलाका धर्मार्पण कर देना और इसकी निगरानी और प्रबन्ध के लिए एक ट्रस्ट बना देना। मेरी अब इच्छा होती है कि उनकी वसीयत पूरी कर दें। जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं, न जाने कब सन्देश आ पहुँचे। कही बिना लिखा-पढ़ी किये मर गयी