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प्रेमाश्रम

भी हैं जो विवाह-संस्कार को मिथ्या समझते हैं। उनके विचार में स्त्री-पुरुषों की अनुमति ही विवाह है, लेकिन भारतवर्ष में कभी इन विचारों का आदर नहीं हुआ।

ज्ञान-स्मृतियों में तो इसकी व्यवस्था स्पष्ट रूप से की गयी है।

गायत्री-की गयी है, मुझे मालूम है; लेकिन कभी उसका प्रचार नहीं हुआ और क्यों होता जब कि हमारे यहाँ स्त्री-पुरुष दोनों एक साथ रह कर अपने मतानुसार परमात्मा की उपासना कर सकते हैं? पुरुष वैष्णव हैं, स्त्री शैव है, पुरुष आर्य समाज में हैं। स्त्री अपने पुरातन सनातनधर्म को मानत है, वह ईश्वर को भी नहीं मानता, स्त्री ईंट और पत्थरों तक की पूजा अर्चना करती है। लेकिन इन भेदों के पीछे पतिपत्नी में अलगाव नहीं हो जाता। ईश्चर वह कुदिन यहाँ न लाये जब लोगों में विचारस्वातन्त्र्य का इतना प्रकोप हो जाय।

ज्ञान--इसका कारण यही हैं कि हम भीरु प्रकृति हैं, यथार्थ का सामना न करके मिथ्या आदर्श-प्रेम की आड़ में अपनी कमजोरी छिपाते हैं।

गायत्री--मैंने आपका आशय नहीं समझा।

ज्ञान---मेरा आशय केवल यही है कि लोक-निन्दा के भय से अपने प्रेम या अरुचि को छिपाना अपनी धार्मिक स्वाधीनता को खाक में मिलाना है। मैं उस स्त्री को सराहनीय नहीं समझता जो एक दुराचारी पुरुष से केवल इसलिए भक्ति करती है कि वह उसका पति है। वह अपने उस जीवन को, जो सार्थक हो सकता है, नष्ट कर देती। है। यही बात पुरुषों पर भी घटित हो सकती है। हम संसार में रोने और झींकने के ही लिए नहीं आये हैं और न आत्म-दमन हमारे जीवन का ध्येय है।'

गायत्री तो आपके कथन को निष्कर्ष यह है कि हम अपनी मनोवृत्तियों को अनुसरण करें, जिस ओर इच्छाएँ ले जायँ उसी ओर आँखें बन्द किये चले जायें। उसके दमन की चेष्टा न करें। आपने पहले भी एक बार यहीं विचार प्रकट किया था। तब से मैंने इस पर अच्छी तरह गौर किया है, लेकिन हृदय इसे किसी प्रकार स्वीकार नहीं करता। इच्छाओं को जीवन का आधार बनाना बालू की दीवार बनाना है। धर्म-ग्रन्थों में आत्म-दमन और संयम की अखंड महिमा कही गयी है, बल्कि इसी को मुक्ति का साधन बताया गया है। इच्छाओं और वासनाओं को ही मानव-पतन का मुख्य कारण सिद्ध किया गया है और मेरे विचार में यह निर्विवाद है। ऐसी दशा में पश्चिमवालों का अनुसरण करना नादानी है। प्रथाओं की गुलामी इच्छाओं की गुलामी से श्रेष्ठ है।

ज्ञानशंकर को इस कथन में बड़ा आनन्द आ रहा था। इससे उन्हें गायत्री के हृदय के भेद्य और अभेद्य स्थलों का पता मिल रहा था, जो आगे चलकर उनकी अभीष्टसिद्धि में सहायक हो सकता था। वह कुछ उत्तर देना ही चाहते थे कि एक लौंडी ने तार का लिफाफा ला कर उसके सामने रख दिया। ज्ञानशंकर ने चौंक कर लिफाफा खोला। लिखा था, 'जल्द आइए, लखनपुरवालों से फौजदारी होने का भय है।

ज्ञानशंकर ने अन्यमनस्क भाव से लिफाफे को जमीन पर फेंक दिया। गायत्री ने