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प्रेमाश्रम

भरोसा किये बैठे थे। बकसी की दशा में प्रेमशंकर के भेजे हुए रुपयों ने बड़ा काम किया। मुर्दे जाग पड़े। कादिर खाँ दृढ़ प्रतिज्ञ हो कर उठ खड़ा हुआ और जी तोड़ कर मुकदमे की पैरवी करने लगा। लेकिन किसानों की नैतिक विजय वास्तविक पराजय से कम न थी। ज्ञानशंकर असामियों को इस दुःसाहस का दंड देने के लिए उधार खाये बैठे थे। अभी गाँव के लोग झोपड़ी में ही कि गौस खाँ अपने तीनों अपरासियों को लिए हुए आये और झोपड़ों में आग लगा दी। बाग की भूमि अमींदार की थी। असामियों को वह झोपड़े बनवाने का कोई अधिकार न था। चपरासियों में दो बिलकुल नये थे फैजू और कर्तार। दोनों लकड़ी चलाने में कुशल थे, कई बार सजा पाये हुए। उनके हृदय में दया और शील का नाम न था। पुराने आदमियों, मे केवल बिन्दा महाराज अपनी कुटिल नीति की बदौलत रह गये थे। अभी तक ताऊन की ज्वाला शान्त न हुई थी कि लोगों को विवश हो कर बस्ती में आना पड़ा, जिसका फल यह हुआ कि दूसरे ही दिन ठाकुर झपटसिंह प्लेग के झोके में आ गये और कल्लू अहीर मरते-मरते बच गया। जितनी आरजू मिन्नत हो सकती थी वह सब की गयी, लेकिन अत्याचारियों पर कुछ असर न हुआ। झपट के मर जाने पर डपट भी मरने के लिए तैयार हुआ। लट्ठ चला कर बोला, गौस को आज जीता न छोड़ूँगा। अब क्या भय है। लेकिन कादिर खाँ उसके पैरों पर गिर पड़ा और समझा-बुझा कर घर लौटाया।

लखनपुर में एक बहुत बड़ा तालाब था। गाँव भर के पशु उसमे पानी पीते थे। नहाने-धोने का काम भी उससे चलता था।

जून का महीना था, कुओं का पानी पाताल तक चला गया था। आस-पास के सब बड़े और तालाब सूख गये थे। केवल इसी बड़े तालाब मे पानी रह गया था। ठीक उसी समय गौस खाँ ने उस तालाब का पानी रोक दिया। दो चपरासी किनारे आ कर डट गये और पशुओं को मार-मार कर भगाने लगे। गाँववालों ने सुना तो चकरायें। क्या सचमुच जमींदार तालाब का पानी भी बन्द कर देगा। यह तालाब सारे गाँव की जीवन स्रोत था। लोगों को कभी स्वप्न में भी अनुमान न हुआ था कि जमींदार इतनी जबरदस्ती कर सकता है। उनका चिरकाल से इस पर अधिकार था। पर आज उन्हें ज्ञात हुआ कि इस जल पर हमारा स्यत्व नहीं है। यह जमींदार की कृपा थी कि वह इतने दिनों तक चुप रहा, किन्तु चिरकालीन कृपा भी स्वत्व का रूप धारण कर लेती है। गांव के लोग तुरन्त तालाब के तट पर जमा हो गये और चपरासियों से वाद-विवाद करने लगें। कादिर खाँ ने देखा कि बात बढ़ना चाहती है तो वहीं से हट जाना उचित समझा। जानते थे कि मेरे पीछे और लोग टल जायेंगे, किन्तु दो ही चार पंग चले थे कि सहसा सुक्खू चौधरी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोले, कहाँ जाते हो कादिर भैया! जब तक यहाँ कोई निबटारा न हो जाय, तुम जाने न पायोगे। जब-जा-बेजा हरएक मामले में इसी तरह दबना है, तो गाँव के सरगना काहे को बनते हो?

कादिर खाँ-तो क्या कहते हो लाठी चलाऊँ?

सुक्खू-और लाठी है किस दिन के लिए?