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प्रेमाश्रम

गया तो सीधे ताकते भी नहीं। लेकिन अपनी-अपनी करनी अपने साथ है। जा कर उसे भेज दो।

कादिर और बिलासी मनोहर के पास गये। वह शंका और चिंता की मूर्ति बना हुआ उसी रास्ते की ओर ताक रहा था। कादिर ने जाते ही यहाँ का समाचार कहा और गिरधर महाराज का आदेश भी सुना दिया। मनोहर क्षण भर सोच कर बोला, वहाँ मेरी और भी दुर्गति होगी। अब तो सिर पर पड़ी ही है, जो कुछ होगा, देखा जायगा।

कादिर--नही, तुम्हें जाना चाहिए। मैं भी चलूँगा।

मनोहर---मेरे पीछे तुम्हारी भी ले-दे होगी।

बिलासी ने कादिर की और अत्यत विनीत भाव से देख कर कहा, दादा जी, वह न जायेंगे, मैं ही तुम्हारे साथ चली चलूँगी।

कादिर---तुम क्या चलोगी, वहीं बड़े आदमियों के सामने मुँह तो खुलना चाहिए।

बिलासी-–ने कुछ कहते बनेगा, रो तो लूँगी।।

कादिर—यह जाने देंगे?

विलासी-जाने क्यों न देंगे, मैं कुछ माँगती हूँ? इन्हें अपनी बुरा-भला न सुझता हो, मुझे तो सूझती है।

कादिर तो फिर देर न करनी चाहिए, नहीं तो वह लोग पहले से ही मालिको की कान भर देंगे।

मनोहर ज्यों को त्यों मूरत की तरह बैठा रहा। बिलासी घर में गयी, अपने गहने निकाल कर पहने, चादर ओढ़ी और बाहर निकल कर खड़ी हो गयी। कादिर मियाँ संकोच में पड़े हुए थे। उन्हें आशा थी कि अब भी मनोहर उठेगा; किंतु जब वह अपनी जगह से जग भी न हिला तब धीरे-धीरे आगे चले। बिलासी भी पीछे-पीछे चली। पर रह रह कर कातर नेत्रों से मनोहर की और ताकती जाती थी। जब वह गाँव के बाहर निकल गये, तो मनोहर कुछ सोच कर उठी और लपका हुआ कादिर मियाँ के समीप आ कर बिलासी से बोला, जा घर बैठ, मैं जाता हूँ।



तीसरा पहर था। ज्ञानशंकर दीवानखाने में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे कि कहार ने आ कर कहा, बाबू साहब पूछते है, कै बजे हैं? ज्ञानशंकर ने चिढ कर कहा, जा कह दे, आप को नीचे बुलाते हैं? क्या सारे दिन सोते रहेगे?

इन महाशय का नाम बाबू ज्वालासिंह था। ज्ञानशंकर के सहपाठी थे और आज ही इस जिले में डिप्टी कलेक्टर हो कर आये। दोपहर तक दोनो मित्रों में बात चीत होती रही। ज्वालासिंह रात भर के जगे थे, सो गये। ज्ञानशंकर को नीद नहीं आयी। इस समय उनकी छाती पर साँप सा लौट रहा था। सब के सब बाजी लिये जाते हैं। और मैं कहीं का न हुआ। कभी अपने ऊपर क्रोध आता, कभी अपने पिता और चाचा