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प्रेमाश्रम

से दबाना चाहते थे, प्रज्वलित हो उठा। मनोहर ने देखा तो उसकी आँखें रक्तवर्ण हो गयी--पददलित अभिमान की मूर्ति की तरह।

चारों में से कोई न बोला। सब के सब सिर झुकाये चुपचाप घास छीलते रहे, यहाँ तक कि तीसरा पहर हो गया। सारा मैदान साफ हो गया। सबने खुरपियाँ रख दी और कमर सीधी करने के लिए जरा लेट गये। बेचारे समझते थे कि गला छूट गया, लेकिन इतने में तहसीलदार साहब ने आ कर हुक्म दिया, गोबर ला कर इसे लीप दो, खूब चिकना कर दो, कोई ककड़-पत्थर न रहने पाये। कहाँ हैं नाजिर जी, इन सबको डोल रस्सी दिलवा दीजिए।

नाजिर ने तुरंत डोल और रस्सी मँगा कर रख दी। कादिर खाँ ने डोल उठाया और कुएँ की तरफ चले, लेकिन दुखन भगत ने घर का रास्ता लिया। तहसीलदार ने पूछा, इधर कहाँ?

दुखरन ने उद्दडता से कहा-घर जा रहा हैं।

तहसीलदार-और लीपेगा कौन?

दुखरन--जिसे गरज होगी वह लीपेगा।

तहसीलदार-इतने जूते पडेंगे कि दिमाग की गरमी उतर जायगी।

दुखरन-आपका अख्तियार है-जूते मारिए चाहे फाँसी दीजिए, लेकिन लीप नहीं सकता।

कादिर--भगत, तुम कुछ न करना। जाओ, बैठे ही रहना। तुम्हारे हिस्से का काम मैं कर दूंगा।

दुखरन--मैं तो अब जूते खाऊँगा। जो कसर है वह भी पूरी हो जाय।।

तहसीलदार--इस पर शामत सवार है। है कोई चपरासी, जरा लगा तो बदमाश को पश्वास जूते, मिजाज ठंडा हो जाय।

यह हुक्म पाते ही एक चपरासी ने लपक करे भगत को इतने जोर से धक्का दिया कि वह जमीन पर गिर पड़े और जूते लगाने लगा। भगत जड़वत् भूमि पर पड़े रहे। संज्ञा-शून्य हो गये, उनके चेहरे पर क्रोध या ग्लानि का चिह्न भी न था। उनके मुख से हाय तक न निकलती थी। दीनता ने समस्त चैतन्य शक्तियों का हनन कर दिया था। कादिर खाँ कुएँ पर से दौड़े हुए आये और उस निर्दय चपरासी के सामने सिर झुका कर बोले, सेख जी, इनके बदले मुझे जितना चाहिए मार लीजिए, अब बहुत हो गया।

चपरासी ने धक्का दे कर कादिर खाँ को ढकेल दिया और फिर जूता उठाया कि अकस्मात् सामने से एक इक्के पर प्रेमशंकर और डपटसिंह आते दिखायी दिये। प्रेमशंकर यह हृदय-विदारक दृश्य देखते ही इक्के से कूद पड़े और दौड़े हुए चपरासी के पास आ कर बोले, खबरदार जो फिर हाथ चलाया।

चपरासी सकते में आ गया। कुल्लू, मनोहर सब डोल-रस्सी छोड़-छोड़ कर दौड़े और उन्हें सलाम कर खड़े हो गये। चमार भी घास ला कर पैसों के इन्तजार में खड़े थे। वे भी पास आ गये। प्रेमशंकर के चारों और एक जमघट सा हो गया। तहसीलदार